अब ‘ नाटू-नाटू ‘ का जमाना

अब ‘ नाटू-नाटू ‘ का जमाना

पूरा देश दक्षिण के संगीतकारों,नर्तकों और लेखकों का कृतज्ञ है कि उसने ‘ नाटू-नाटू ‘ के जरिये देश को एक बार फिर झूमने का मौक़ा दे दिया .’ नाटू-नाटू ‘ को मिले आस्कर अवार्ड के बाद मुझे अचानक लगने लगा है कि अब हमारे देश की सियासत में भी ‘ नाटू-नाटू ‘ युग शुरू होने वाला है .देश के तमाम नेता आने वाले दिनों में आपको ‘ नाटू-नाटू ‘ करते नजर आ सकते हैं . मुझे याद आता है पिछ्ला दशक .2011 में दक्षिण के ही एक युवा और प्रतिभाशाली अभिनेता और गायक ने ‘व्हाय दिस कोलावरी डी ‘ गाकर पूरे देश को कोलावरी डी मय कर दिया था .संगीतकार अनिरुद्ध रविचंद्र के संगीत में भी वो ही जादू था जो आज आपको ‘ नाटू-नाटू ‘ के संगीत में दिखाई दे रहा है.’ नाटू-नाटू ‘ के संगीतकार एमएम कीरावानी हैं .उन्होंने अपनी मौलिकता से संगीत की दुनिया में एक नया इतिहास लिखा है . इस समय देश का अमृतकाल चल रहा है.इस काल में ‘ नाटू-नाटू ‘ की कामयाबी ने सियासत को ही नहीं बल्कि खेल को भी प्रभावित किया है. भारत के शीर्ष बल्लेबाज विराट कोहली भी वानखेड़े स्टेडियम में ऑस्ट्रेलिया के विरुद्ध खेलते हुए अचानक ‘ नाटू-नाटू ‘ पर थिरकते नजर आये .खेल हो या सियासत ,ये सबके लिए एक शुभ लक्षण है कि कम से कम लोग थिरकने लगे हैं ,अन्यथा सब जगह गड़बड़ नजर आती है .खेल हो या सियासत . इन दिनों एक तरफ ‘ नाटू-नाटू’ ने डंका बजा रखा है तो दूसरी तरफ देश की संसद में राहुल गांधी की वजह से ‘ नाटू-नाटू’ हो रहा है. संसद चल नहीं रही बल्कि ‘ नाटू-नाटू’ करती नजर आ रही है .सत्तापक्ष चाहता है कि राहुल गांधी ‘ नाटू-नाटू’ करने के बजाय देश से माफी मांगें और विपक्ष चाहता है कि सत्ता पक्ष यानि सरकार भाई गौतम अडाणी के साथ अपने रिश्तों पर ‘ नाटू-नाटू’ करके दिखाए .एक संभावना है कि यदि दोनों पक्ष सामूहिक रूप से हंगामा करने के बजाय संसद के बाहर या अध्यक्ष जी अनुमति दें तो भीतर भी ‘ नाटू-नाटू ‘ करके देखें तो मुमकिन है कि संसद का सौहार्द वापस लौट आये . इस वक्त देश नाजुक दौर से गुजर रहा है. देश में मंहगाई की मार है.भय है,नफ़रतें हैं ऐसे में देश को ‘ नाटू-नाटू’ की सख्त जरूरत है .‘ नाटू-नाटू ‘ सौहार्द का नया मन्त्र हो सकता है .इसके लिए सरकार की और से ‘ नाटू-नाटू ‘ करने वाले दक्षिण के कलाकारों को बधाइयां देने भर से काम नहीं चलने वाला. सरकार को ‘ नाटू-नाटू’ को देश का तीसरा राष्ट्र गीत,या नृत्य घोषित करना होगा .निर्देश देना होंगे कि हर शासकीय काम के अंत में सामूयक रूप से ‘ नाटू-नाटू ‘ किया जाएगा .सरकार वार्षिक ” नाटू-नाटू’ दिवस भी घोषित कर सकती है .उस दिन पूरा देश मिलकर ‘ नाटू-नाटू ‘ करे तो मुमकिन है कि भारत आपस में जुड़ जाये और राहुल गांधी को अपनी चर्चित भारत जोड़ो यात्रा का दूसरा चरण शुरू न करना पड़े .
मै संगीत साम्राट तानसेन की नगरी का वाशिंदा हूँ इसलिए जानता हूँ कि संगीत में लोगों को जोड़ने-मोड़ने का जो जादू है वो किसी और विधा में शायद नहीं है. लोगों को तोडना जितना आसान काम है जोड़ना उतना ही कठिन काम है .ये काम गाल बजाने से या मीलों पैदल चलने से शायद न हो पाए किन्तु संगीत ये काम कुछ ही मिनटों में कर सकता है .संगीत से हर आयु,जाति,वर्ग और धर्म का आदमी अपने आप जुड़ जाता है. आप अगर रायशुमारी कराएं तो पाएंगे कि सियासत में भी ‘ नाटू-नाटू ‘ को लेकर कोई मतभेद नहीं निकलेगा .सभी दलों और विचारधाराओं के लोग ‘ नाटू-नाटू ‘के प्रशंसक होंगे .
                                                 पिछले दशक में जब पूरा देश ‘ कोलावरी डी ‘ कर रहा था तब भी मुझे लगा था कि कुछ अच्छा होने वाला है .’ कोलावरी डी ‘ के तीन साल बाद अच्छा हुआ भी . डॉ मन मोहन सिंह की सत्ता गयी और मोदी जी की सत्ता आयी .कहा गया कि अब ‘अच्छे दिन आएंगे,लेकिन वे नहीं आये .अब मुमकिन है कि ‘ नाटू-नाटू’ को ऑस्कर मिलने कि एक साल बाद 2024 में देश कि अच्छे दिन वापस आ जाएँ .अब डॉ मन मोहन सिंह को तो सत्ता में आना नहीं है .हाँ कोई और तो आ ही सकता है.
देश कि सत्ता-संग्राम में शामिल लोगों के बीच दाढ़ी बढ़ाओ ,घटाओ प्रतियोगिता तो हो चुकी .दाढ़ियों से सियासत का फैसला नहीं होता ,हुआ भी नहीं .उलटे द्वेष और बढ़ गया ,देश मुद्दों कि बजाय दाढ़ियों में उलझ गया और अभी तक उलझा है. सुलझने का नाम ही नहीं ले रहा .सुलझे भी कैसे ये उलझन ! लोग यानि देश ये तय ही नहीं कर पा रहा कि किसकी दाढ़ी सबसे अच्छी है ? अंतत: दोनों प्रतिस्पर्धियों को अपनी-अपनी दाढ़ी ‘ ट्रिम’ कराना पड़ी .आम जनता के साथ-साथ मेरे जैसा अदना सा लेखक भी इस दाढ़ी कि फेर में पड़ गया .मैंने भी एक छोटी सी [अपनी औकात के हिसाब की] दाढ़ी रखी लेकिन मुझे न पुरस्कार मिले और न सम्मान .पुस्तक मेले में भी मेरी किसी किताब का विमोचन नहीं हो पाया .अंत में देश की तरह मेरा भी दाढ़ी से मोहभंग हो गया .
मेरी हार्दिक इच्छा है के इस वक्त देश में लोगों पर ‘नाटू-नाटू’ का जो नशा है वो आने वाले आम चुनाव तक न उतरे. लोग चुनाव जैसे खतरनाक खेल में बोझिल मन से नहीं बल्कि ‘ नाटू-नाटू’ करते हुए हंसी-ख़ुशी हिस्सा लें ,क्योंकि चुनाव ही हैं जो देश की किस्मत पलट सकते हैं और ‘नाटू-नाटू ‘ इसमें सहायक की भूमिका अदा कर सकता है .देश की सत्ता का ‘ नाटू-नाटू’ की कामयाबी में कोई रोल नहीं है किन्तु पूरी केंद्र सरकार और सरकारी पार्टी ‘ नाटू-नाटू’ की कामयाबी को सरकार की और सरकारी पार्टी की कामयाबी मानकर चल रही है. ‘नाटू-नाटू ‘ वालों को बधाइयों का दौर जारी है .अब केवल एक तस्वीर आना बाक़ी है ठीक उसी तरह की जैसी की ‘ दि कश्मीर फ़ाइल ‘ के समय विवेक नाम के एक फिल्मकार कि साथ आयी थी .अंत में मै कहना चाहूंगा के ‘ नाटू-नाटू’ कम से कम इस समय तो देश कि लिए अभिमान का कारण तो है ही.भले ही उसमें कोई मौलिकता हो या न हो .क्योंकि मौलिकता का कोई सर्वमान्य पैमाना नहीं होता .जो चीज आपको मौलिक लग रही हो वो मुमकिन है कि किसी दूसरे को न लग रही हो .कोलावरी डी इसका उदाहरण है .उसने भी देश को ‘ नाटू-नाटू’ की तरह नाचने पर मजबूर किया था लेकिन आस्कर उसकी किस्मत में नहीं था .मुंबइया फिल्मों कि किसी गीतकार की किस्मत में नहीं था .तो चलिए आइये’ नाटू-नाटो’ करें क्योंकि अब ‘ इलू-इलू ‘ की तो उम्र नहीं रही अपनी ।

व्यक्तिगत विचार आलेख

श्री राकेश अचल जी  ,वरिष्ठ पत्रकार  एवं राजनैतिक विश्लेषक मध्यप्रदेश  ।

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