हाल के आम चुनाव में भाजपा और उसके सहयोगियों के दांत खट्टे करे वाले आईएनडीआईए गंठबंधन में भी खटास पैदा होती दिखाई दे रही है । संसद के शीत सत्र में इंडिया गठबंधन के घटक दल बिखरे -बिखरे नजर आ रहे हैं। तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो सुश्री ममता बनर्जी के मन की बात तो ओठों तक आए ही गयी। वे विपक्षी गठबंधन को नेतृत्व देने के लिए लालायित है, कोई उनसे कह भर दे।देश में लगातार क्षीण हो रही कांग्रेस और चारों दिशाओं में बिख्ररे विपक्षी दलों को एकजुट करने में मिली कामयाबी एक साल में ही दम तोड़ती नजर आ रही है । विपक्षी एकता की धुरी कांग्रेस के नेता राहुल गांधी की क्षमताओं को लेकर सवाल खड़े किये जाने लगे है। इसका सीधा अर्थ है कि इंडिया गठबंधन के दलों में राहुल की नेतृत्व क्षमता पर यकीन कम हो रहा है। ऐसे में यदि राहुल ने अपने आपको न बदला तो आईएनडीआईए गठबंधन की नीति और नेता दोनों बदल सकते हैं। बदलाव की मांग बंगाल से भी उठती दिखाई दे रही है और महाराष्ट्र से भी।
आम चुनाव में मिली सफलता के बाद आईएनडीआईए गठबंधन के नेता हवा में उड़ने लगे थे,लेकिन पहले हरियाणा और जम्मू-कश्मीर और बाद में झारखण्ड और महाराष्ट्र विधान सभा चुनावों के नतीजों ने विपक्षी गठबंधन की उम्मीदों पर पानी फेर दिया। एक बार ये बात फिर प्रमाणित हो गयी कि सब कुछ होने के बावजूद आईएनडीआईए गतहबंधन के पास भाजपा को रोकने की कोई प्रभावी रणनीति नहीं है। वो आक्रामकता भी नहीं है जो भाजपा को सबक सीखा सके। भाजपा ने जिस तरह से हरियाणा में विपक्ष के सामने परोसी हुई सत्ता की थाली छीन ली उसी तरह से महाराष्ट्र में भी विपक्षी गठबंधन का सीराजा फैला दिया।आईएनडीआईए गठबंधन ने उत्तर प्रदेश विधानसभा के उपचुनाव में कांग्रेस को भाव नहीं दिया ,तो बंगाल में ममता बनर्जी ने। पंजाब में आम आदमी पार्टी ने मिलकर चुनाव नहीं लड़ा तो बिहार में भी गठबंधन के प्रमुख दल आरजेडी को हार का मुंह देखना पड़ा। विधानसभा उपचुनावों के नतीजे आने के बाद संसद के शीत सत्र में भी विपक्षी एकता कमजोर ही नजर आई । अडानी मामले पर कांग्रेस के बहिर्गमन का साथ न तृमूकां ने दिया और न समाजवादी पार्टी ने। समाजवादी पार्टी के नेता ने तो यहां तक कह दिया कि राहुल गांधी कांग्रेस के नेता हैं हमारे नेता नहीं।हाल के घटनाक्रम से इस बात के संकेत साफ मिल रहे हैं कि विपक्षी घटक दल राहुल के नेतृत्व में आगे का सफर तय करने के लिए तैयार नहीं है । बहुत से घटक दलों के लिए जिस आक्रामकता की दरकार विपक्ष को है वो तृणमूल कांग्रेस की सुप्रीमो ममता बनर्जी में दिखाई दे रही है। ऍन सीपी के शरद पंवार और उनकी बेटी सुप्रिया सुले भी ममता के नेतृत्व को स्वीकार करने के मूड में नजर आ रहे है। महाराष्ट्र विधानसभा के चुनाव में राहुल के साथ मिलाकर चुनाव लड़ी एनसीपी चुनाव नतीजों से नाखुश है। नाखुश तो शिव सेना -उद्धव गुट भी है। आम आदमी पार्टी और समाजवादी पार्टी के सुर पहले से ही बदले -बदले सुनाई दे रहे हैं।
इंडिया गठबंधन के नेतृत्व पर सपा सांसद राम गोपाल यादव ने कहा कि समाजवादी पार्टी चाहती है कि . गठबंधन जारी रहे और साथ मिलकर चुनाव लड़े। गठबंधन के नेता अभी खरगे साहब हैं। महाराष्ट्र में सपा के एमवीए छोड़ने पर उन्होंने कहा कि वहां के लोगों की ओर से जिस तरह के बयान दिए जा रहे हैं, वह नहीं दिए जाने चाहिए।महाराशिवसेना उद्धव ठाकरे गुट की ओर से छह दिसंबर के अयोध्या विध्वंस की घटना का समर्थन किए जाने को लेकर महा विकास अघाड़ी में हलचल बढ़ गई है। समाजवादी पार्टी की महाराष्ट्र प्रमुख और विधायक अबु आसिम आजमी ने गठबंधन के प्रमुख घटक शिवसेना (यूबीटी) के अयोध्या में 6 दिसंबर बाबरी विध्वंस की घटना का समर्थन किए जाने पर नाराजगी जताई है। उन्होंने कहा कि महाविकास अघाड़ी में यह लोग कांग्रेस, एनसीपी और सपा के साथ आने के बाद कह रहे थे कि वह सेकुलर हो गए हैं।अबु आजमी ने महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव रिजल्ट का जिक्र करते हुए कहा कि जब वे चुनाव हार गए तो फिर वही पुरानी बातें दोहराने लगे हैं। अगर ऐसा ही रहा तो महाविकास अघाड़ी आगे चल नहीं पाएगा।
भाजपा और प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र दामोदर दास मोदी के प्रति लगातार हमलावर रहे पूर्व राजयपाल सत्यपाल मलिक भी राहुल गांधी के नेतृत्व से हताश नजर आ रहे हैं। मलिक ने भी राहुल के बजाय गतहबंधन के नेतृत्व के लिए ममता बनर्जी के नाम का समर्थन किया है। मलिक चाहते हैं कि इण्डिया गठबंधन को ममता बनर्जी को नेतृत्व का मौक़ा देना चाहिये । शरद पंवार भी दबी जुबान में ममता के नाम पर सहमत नजर आ रहे हैं। मुझे लगता है कि इस मुद्दे पर इंडिया गठबंधन के तमाम घटक दल संसद का शीत सत्र समाप्त होते ही अंतिम फैसला ले लेंगे। इस मुद्दे पर कांग्रेस ने अभी मौन साध रखा है।विपक्षी खेमे में मन मुटाव भाजपा के लिए जीवनदान देने वाला हो सकता है ,किन्तु एक बात ये भी है कि ममता बनर्जी को राहुल गांधी की तरह पूरब से पश्चिम तक और उत्तर से दक्षिण तक जन समर्थन मिलने वाला नहीं है। वे जुझारू हैं किन्तु उनकी कोई राष्ट्रीय अपील नहीं है । हिंदी पट्टी में तो छोड़िये दक्षिण में भी कोई उनके साथ आसानी से चलने को राजी हो जाएगा ,ये कहना कठिन है। ममता बनर्जी ने बंगाल में तो अभी तक भाजपा को पांव नहीं जमाने दिए हैं लेकिन वे पूरे देश को बंगाल की तरह भाजपा के लिए चुनौती में बदल देंगी ,इसमें मुझे संदेह है।जो भी है विपक्ष का बिखराव देश के लोकतंत्र की सेहत के लिहाज से ठीक नहीं है। देश के हिन्दूकरण को रोकने के लिए विपक्ष ने यदि दरियादिली से अपना नया नेता न चुना तो इसकी बहुत बड़ी कीमत सभी को चुकाना होगी । कांग्रेस के लिए ये आत्मनिरीक्षण का सही समय है। उसे तय करना है कि वो सकल विपक्ष के दबाब में क्या राहुल गांधी के नेतृत्व को खारिज कर सकती है या उसे राहुल पर ही भविष्य की राजनीति करना है ?
आपको याद होगा कि एक जमाने में समाजवादी सियासत के झंडावरदार मने जाने वाले बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार आम चुनाव से ठीक पहले इंडिया गठबंधन से जान छुड़ाकर भाजपा में शरणागत हो गए थे । जेपी आंदोलन कि पैदाइश नितीश कुमार को प्रधानमंत्री के सामने दंडवत करते हुए पूरे देश ने देखा है । जाहिर है कि वे अब भाजपा के लिए कोई चुनौती नहीं रहे । शरद पंवार भी उम्रदराज हो चुके है। अखिलेश यादव अभी भी उत्तर प्रदेश में उलझे हैं। एक राहुल गांधी हैं जिन्होंने पूरा देश पैदल नापा है। उमके सामने पहचान का कोई संकट नहीं है । उनका असल संकट अपने नेतृत्व को प्रामाणिक न बना पाने का है। ये चुनौती कांग्रेस कि भी है कि वो राहुल के पीछे चले या और कोई नेता तलाश ले ? नेतृत्व के संकट से भाजपा को छोड़ आज सभी दल जूझ रहे हैं। जनता के मन में कौन है ये जानने की कोशिश कोई नहीं कर रहा ।
श्री राकेश अचल जी ,वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनैतिक विश्लेषक
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