कॉलेजियम सिस्टम कोलोनियल तो नहीं

कॉलेजियम सिस्टम कोलोनियल तो नहीं

गूढ़ विषय पर मेरे जैसा मूढ़ व्यक्ति लिखने का दुस्साहस करे तो उसे पहले ही क्षमा कर दिया जाना चाहिए। देश की बड़ी अदालतों में न्यायाधीशों की नियुक्ति के लिए बनाया गया कॉलेजियम सिस्टम शुरू से विवादास्पद है। आखिर ये सिस्टम कोई कोलोनियल (उपनिवेशवादी सिस्टम तो है नहीं। कोई तीन दशक पुराने इस स्वदेशी सिस्टम में आखिर ऐसी क्या खामी है कि सरकार और विपक्ष हमेशा इस सिस्टम के खिलाफ खड़े दिखाई देते हैं। सुप्रीम कोर्ट ने कॉलेजियम को लेकर पहली बार ऐतिहासिक कदम उठाया है. कॉलेजियम ने हाईकोर्ट में जजों की नियुक्ति में ‘रॉ ‘और इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट को भी सार्वजनिक किया . इसके साथ ही केंद्र की आपत्तियों का खुलासा करते हुए इसका विस्तार से जवाब दिया गया है । मुख्य न्यायाधीश डीवाई चंद्रचूड़ के कॉलेजियम ने चार दिनों तक विचार विमर्श के बाद यह फैसला लिया है ।कॉलेजियम के जजों के अलावा भविष्य के मुख्य न्यायाधीश से भी बातचीत की जाएगी। दरअसल, जजों की नियुक्ति को लेकर केंद्र और न्यायपालिका के टकराव के बीच सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने ये बड़ा और सख्त कदम उठाया है. केंद्र के रुख का जवाब देने के लिए मुख्य न्यायाधीश की अगुवाई में कॉलेजियम ने तय किया कि इस बार सारे मामले को सार्वजनिक किया जाए. यहां तक कि कॉलेजियम की सिफारिशों में केंद्र की आपत्तियों, ‘रॉ’ एवं इंटेलिजेंस ब्यूरो की रिपोर्ट का भी हवाला दिया जाए. साथ ही ऐसे मामलों में कॉलेजियम की राय को भी सिफारिशों में शामिल किया जाए । कोई माने या न माने लेकिन विधि के एक छात्र और आम नागरिक की हैसियत से मुझे लगता है कि इस फैसले से न्यायपालिका में वंशवाद की विषबेल शायद क्षीण हो।29 साल के सफर में कॉलेजियम सिस्टम ने देश को अब तक अनेक हीरे – मोती दिए तो बड़ी तादाद में कांच-किरच भी मिले,जिनकी वजह से न्यायपालिका के प्रति जनास्था आहत हुई और पदों की गरिमा में कमी आई। मेरे संज्ञान में ऐसे तमाम वकील इस सिस्टम के पिछले दरवाजों-खिड़कियों से न्यायपालिका में शीर्ष तक पहुंचे हैं। किसी का नाम लेना जख्मों को कुरेदने जैसा होता है, वैसे ऐसे महानुभावों के बारे में पूरा देश जानता है। कॉलेजियम सिस्टम का दुरुपयोग कांग्रेस ने भी जमकर किया और भाजपा ने। दोनों दलों की कृपा से न्यायपालिका में घुसे इन लोगों ने बाकायदा संबंधित प्रभुओं को किसी न किसी शक्ल में शुकराना अदा किया। कॉलेजियम प्रणाली का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि भारत के मुख्य न्यायाधीश की राय उनकी व्यक्तिगत राय नहीं है बल्कि न्यायपालिका में सर्वोच्च सत्यनिष्ठा वाले न्यायाधीशों के एक निकाय द्वारा सामूहिक रूप से बनाई गई राय है।

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हाल के फैसले से मौजूदा सिस्टम को अपनी निष्पक्षता कायम करने में मदद मिलेगी। क्योंक कॉलेजियम प्रणाली की दक्षता को समय-समय पर इसकी स्वतंत्रता और न्यायिक नियुक्तियों तथा अन्य निर्णयों की पारदर्शिता के संदर्भ में चुनौती दी गई है। कोई तीन साल पहले की बात है जब केंद्र सरकार ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय में अतिरिक्त न्यायाधीश के तौर पर नियुक्त करने के लिए उच्चतम न्यायालय कॉलेजियम की कुछ वकीलों के नाम की सिफारिशों पर रोक लगा दी थी क्योंकि उनकी वार्षिक पेशेवर आय निर्धारित मानदंडों से कम थी। दरअसल जब बार के किसी उम्मीदवार की उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए सिफारिश की जाती है, तो उस पर विचार करने के लिए यह जरूरी है कि उस व्यक्ति की कम से कम 5 सालों में औसतन 7 लाख रुपये की वार्षिक आय होनी चाहिए। कॉलेजियम ने इलाहाबाद उच्च न्यायालय के अतिरिक्त न्यायाधीश के रूप में नियुक्ति के लिए कुछ वकीलों के नामों की सिफारिश की थी। उस समय सवाल किए गए थे कि क्या कॉलेजियम को नहीं मालूम कि निर्धारित आय से कम आय वालों की हाईकोर्ट जज के रूप में नियुक्ति को सरकार की मंजूरी नहीं मिल सकती तो ऐसे नामों की संस्तुति ही क्यों की गयी? यह गड़बड़ी इलाहाबाद हाईकोर्ट के कॉलेजियम ने पहले की फिर उच्चतम न्यायालय ने उन नामों को मंजूरी के लिए केंद्र को भेज कर दूसरी गलती की। जबकि कालेजियम के सामने सबकी फाइलें रहती हैं। देश के अनेक पूर्व न्यायाधीशों ने न्यायपालिका में नागरिकों के विश्वास को बनाए रखने के लिये कॉलेजियम को कानून का सतर्कतापूर्वक पालन करते हुए अपनी स्वतंत्रता के हनन से खुद को बचाने की वकालत समय समय पर की है। आपको स्मरण करा दूं कि वर्ष 1990 में सर्वोच्च न्यायालय के दो फैसलों के बाद कॉलेजियम की व्यवस्था बनाई गई थी । वर्ष 1993 से इसी के माध्यम से उच्च न्यायपालिका में जजों की नियुक्तियाँ होती हैं। सर्वोच्च न्यायालय तथा उच्च न्यायालयों में जजों की नियुक्ति तथा तबादलों का फैसला भी कॉलेजियम ही करता है। उच्च न्यायालयों के कौन से जज पदोन्नत होकर सर्वोच्च न्यायालय जाएंगे यह फैसला भी कॉलेजियम ही करता है। कॉलेजियम की सिफारिशें प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को भेजी जाती हैं और उनकी मंज़ूरी मिलने के बाद ही नियुक्ति की जाती है।अभी तक अपवादों को छोड़कर किसी सिफारिश को नामंजूर नहीं किया गया, क्योंकि अंततोगत्वा सिस्टम तो सरकारी ही है।

व्यक्तिगत विचार-आलेख-

श्री राकेश अचल जी  जी ,वरिष्ठ पत्रकार  एवं राजनैतिक विश्लेषक मध्यप्रदेश  । 

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