“मुझे ग़म भी उनका अज़ीज है, कि ये उन्हीं की दी हुई चीज़ है।”

मेरे पिताजी की आदत भी अज़ीब थी। खाना खाने बैठते तो एक निवाला तोड़ कर थाली के चारों ओर घूमाते और फिर उसे किनारे रख