हिंदी के नाम पर आत्महत्या क्यों…?

हिंदी के नाम पर आत्महत्या क्यों…?

कल भारत का संविधान-दिवस था और कल ही तमिलनाडु के एक व्यक्ति ने यह कहकर आत्महत्या कर ली कि केंद्र सरकार तमिल लोगों पर हिंदी थोप रही है। आत्महत्या की यह खबर पढ़कर मुझे बहुत दुख हुआ। पहली बात तो यह कि किसी ने हिंदी को दूसरों पर लादने की बात तक नहीं कही है। तमिलनाडु की पाठशालाओं में कहीं भी हिंदी अनिवार्य नहीं है। हाँ, गांधीजी की पहल पर जो दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा बनी थी, वह आज भी लोगों को हिंदी सिखाती है। हजारों तमिलभाषी अपनी मर्जी से उसकी परीक्षाओं में भाग लेते हैं। आत्महत्या करनेवाले सज्जन चाहते तो वे इसका भी विरोध कर सकते थे लेकिन विरोध का यह भी क्या तरीका है कि कोई आदमी अपनी या किसी की हत्या कर दे। जो अहिंदीभाषी हिंदी नहीं सीखना चाहें, उन्हें पूरी स्वतंत्रता है लेकिन वे कृपया सोचें कि ऐसा करके वे अपना कौनसा फायदा कर रहे हैं?

क्या वे अपने आप को बहुत संकुचित नहीं कर रहे हैं? सिर्फ तमिल के ज़रिए क्या वे तमिलनाडु के बाहर किसी से कोई व्यवहार कर सकते हैं? यदि 10-15 प्रतिशत तमिल लोग अंग्रेजी सीख लेते हैं तो वे नौकरियां तो पा जाएंगे, क्योंकि केंद्र की सभी सरकारें अभी भी गुलामी का जुआ धारण किए हुए हैं लेकिन वे लोग खुद से पूछें कि भारत की आम जनता के साथ वे किस भाषा में बात करेंगे? इसमें शक नहीं कि भारत की प्रत्येक भाषा उतनी ही सम्मानीय है, जितनी कि हिंदी है लेकिन प्रत्येक भाषाभाषी को यदि अखिल भारतीय स्तर पर काम करना है तो वह हिंदी की उपेक्षा कैसे कर सकता है? जब ह.द. देवेगौड़ा भारत के प्रधानमंत्री बने तब वे हिंदी का एक वाक्य भी ठीक से बोल नहीं पाते थे लेकिन उन्होंने मुझसे आग्रहपूर्वक हिंदी सीखी और सारे उत्तर भारत के कार्यक्रमों में वे अपना भाषण हिंदी में पढ़कर देने लगे। हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं के बीच कोई विरोध नहीं है।

राजनीतिक बहकावे में आकर कोई भी अतिवादी कदम उठाना उचित नहीं है। अब तो संविधान दिवस पर कानून मंत्री किरन रिजिजू ने घोषणा की है कि अब अदालतों के फैसलों का अनुवाद क्षेत्रीय भाषाओं में करवाने की भी व्यवस्था की जा रही है। मैं तो चाहता हूं कि अदालतों की बहस भी हिंदी और क्षेत्रीय भाषाओं में की जाए ताकि लोग ठगे न जाएं। हिंदीभाषियों को चाहिए कि वे कम से कम एक अन्य भारतीय भाषा का कामचलाऊ ज्ञान तो प्राप्त करें ताकि अहिंदीभाषियों को लगे कि हम उनकी भाषाओं का भी पूरा सम्मान करते हैं। भारत सरकार को चाहिए कि नेहरु-काल के त्रिभाषा-सूत्र की बजाय वह अब द्विभाषा-सूत्र लागू करे और यदि कोई विदेशी भाषा पढ़ना चाहे तो उसे अल्पावधि प्रशिक्षण की भी सुविधा दी जाए।

आलेख श्री वेद प्रताप वैदिक जी, वरिष्ठ पत्रकार ,नई दिल्ली।

साभार राष्ट्रीय दैनिक  नया इंडिया  समाचार पत्र  ।

लोकतांत्रिक, निष्पक्ष राजनैतिक,सामाजिक समाचारों के लिये कृप्या हमारे चैनल की लिंक पर क्लिक करें, हमारे चैनल को सबस्क्राईब करें और हमारे लघु प्रयास को अपना विराट सहयोग प्रदान करें , धन्यवाद।

https://www.youtube.com/c/BharatbhvhTV

Share this...

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *