सम्पादकीय
मध्यप्रदेश में लगभग आठ साल बाद हो रहे त्रिस्तरीय पंचायती चुनाव एवं नगरीय निकाय चुनावों से एक संपूर्ण राजनैतिक चुनाव प्रक्रिया में बड़ा परिर्वतन हुआ है इससे पहले प्रदेष में पंचायत एवं निकाय चुनाव मुख्य विधानसभा चुनावों के लगभग एक वर्ष बाद संपन्न होते थे । लेकिन 2018 में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद सरकार बचाने की जददोजहद में जहां एक साल के लिये चुनाव टाल दिये गये तो बीते दो सालों से कोरोना महामारी ने इन चुनावों को प्रभावित किया आखिरकार सुप्रीम कोर्ट के डंडे ने सरकार को बेमन से ही सही चुनाव कराने के लिये विवष कर दिया नतीजतन विधानसभा चुनावों से एक साल बाद होने वाले चुनाव अब पहले संपन्न किये जा रहे है। जिसके साइड इफेक्ट यह है कि अभी तक नाराज कार्यकर्ताओं को मनाने के लिये निगम चुनावों का दिलासा काम नहीं आने वाला इसके अतिरिक्त इन चुनावों में जीत इसलिये आवश्यक हो जाती है कि विधानसभा चुनावों से ठीक पहले हार या जीत का संदेश जनता के बीच एक लहर के रूप में अपना असर दिखायेगा इसलिये इन चुनावों में टिकिट वितरण दोनो दलों के लिये सबसे मुश्किल चुनावी प्रक्रिया मानी जा रही है।
बीते सप्ताह मध्यप्रदेष की राजधानी भोपाल आये भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ने जहां एंसे कई संकेत दिये जिसमें मध्यप्रदेश की राजनीति में बदलाव की अटकले तेज है तो सबसे महत्वपूर्ण दो टूक अंदाज में बयान दिया था कि भाजपा को परिवारवाद व वंषवाद की राजनीति से मुक्त कराने का समय आ गया है उन्होने स्पष्ट संदेष देेते हुए कहा था, कि अब नेता पुत्रों और परिवार को भाजपा का टिकिट नहीं मिलेगा और उनके इस बयान के बाद भाजपा कार्यकर्ताओं में आगामी निगम चुनावों के प्रति उत्साह का माहौल बना था और बना है।
लेकिन जहां पंचायती चुनावों में बिना दल के चुनाव चिन्ह के मतदान होने का लाभ लेकर अधिकांष भाजपा नेतओं के रिश्तेदार ही प्रमुख दोवेदार के रूप में सामने आ रहे है तो निकाय चुनावों में अभी तक स्थिति स्पष्ट नहीं है। फिर भी महापौर पद के लिये अब चुनावी तिकड़म तेज होती दिखाई दे रही है । प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस ने जहां लगभग 12 नगर निगम में अपने संभावित प्रत्याषी को चुनाव प्रचार के संकेत दे दिये है तो भाजपा का मंथन अब तक जारी है। और भाजपा अपने दावेदारों कार्यकर्ताओं को नाराज किये बिना चुनाव में जाना चाहती है।
इन सबसे इतर पेंच एंसी सीट पर फसा है जहां महिला वर्ग के लिये आरक्षण है इन्ही में से एक सागर महापौर का पद भी है जो सामान्य महिला के लिये आरक्षित किया गया है सामान्य वर्ग से राजनीति में सक्रिय भूमिका निभाने वाली नेत्रियों के अतिरिक्त एक दर्जन से अधिक भाजपा के नेता पदाधिकारी अपनी पत्नि या बहुओं के लिये दावेदारी कर रहेे है जिनकी भूमिका सार्वजनिक जीवन या पार्टी संबधी गतिविधियों में नगण्य रहीं है। यह स्थिति लगभग दोनो दलों में है लेकिन भाजपा में दोवेदारो की संख्या ज्यादा है सो भाजपा द्धारा हाल ही में परिवारवाद पर तय की गई नीति और नीयत पर पर पतिवाद का ग्रहण लगता हुआ नजर आ रहा है।
कांग्रेस की ओर से महापौर की लगभग तय प्रत्याशी के सामने अब भाजपा के लिये प्रत्याषी चयन और कठिन हो गया है क्याकि यदि वह भाजपा में सक्रिय पदाधिकारियों के परिवार की महिलाओं को महापौर पद का प्रत्याषी घोषित करते है तो एक तरफ भाजपा की सख्त दिखने वाली परिवारवाद नीति को धक्का लगेगा दूसरी तरफ नगर में संदेष गलत जायेगा। इसीलिये पूरी संभावना इसी बात की है भाजपा पार्टी में सक्रिय महिला नेत्रियों मे ंसे ही किसी को अपना उम्मीदवार बनायेगी दूसरी जानकारी ऐंसी भी है कि पार्टी सामाजिक जीवन में सक्रिय भूमिका निभाने वाले किसी चौकाने वाले नाम को भी सामने ला सकती है।
अभिषेक तिवारी