जन्माष्टमी विशेष :  पूर्णावतार योगीश्वर श्रीकृष्ण…

जन्माष्टमी विशेष : पूर्णावतार योगीश्वर श्रीकृष्ण…

19 अगस्त- श्रीकृष्ण जन्माष्टमी विशेष 

श्री कृष्ण ने योग और ध्यान के माध्यम से ईश्वर के इन्ही सोलह गुणों अर्थात कलाओं को प्राप्त किया था और यही कारण है कि उन्हें सोलह कला पूर्ण अवतारी पुरुष कहा जाता है। सोलह कलाएँ वस्तुतः बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।

सनातन धर्म के प्रमुख देवता विष्णु के प्रमुख अवतारों में सर्वपपूज्य षोडश कलायुक्त पूर्णावतार योगीश्वर श्रीकृष्ण का जन्म क्षत्रिय कुल में राजा यदु के वंश में हुआ था। विष्णु अर्थात श्रीकृष्ण ने यह अवतार वैवस्वत मन्वन्तर के अट्ठाईसवें द्वापर में श्रीकृष्ण के रूप में देवकी के गर्भ से मथुरा के कारागर में लिया था। महाभारत, विभिन्न पुराणों और अन्यान्य पौराणिक ग्रन्थों में महाभारत युद्ध की कालगणना, श्रीकृष्ण का जन्म व जीवन काल से सम्बन्ध रखने वाले अनेक विवरण प्राप्य हैं । श्रीकृष्ण के जन्म व जीवन काल से सम्बन्ध रखने वाले नक्षत्रीय विवरण अनेक भारतीय पुरातन ग्रन्थों में अंकित हैं । भागवत महापुराण के द्वादश स्कंध के द्वितीय अध्याय के अनुसार कलियुग के आरंभ के संदर्भ में भारतीय गणना के अनुसार कलयुग का शुभारंभ ईसा से 3102 वर्ष पूर्व 20 फ़रवरी को 2 बजकर 27 मिनट 30 सेकंड पर हुआ था। पुराणों में बताया गया है कि जब श्री कृष्ण का स्वर्गवास हुआ तब कलयुग का आगमन हुआ, इसके अनुसार कृष्ण जन्म 4,500 से 3,102 ईसा पूर्व के बीच माना जाता है। भागवत पुराण खण्ड 10 अध्याय 3 तथा इसी पुराण के खण्ड 11 अध्याय 6-7, विष्णुपुराण खण्ड 5 अध्याय 1,4,5,23 व 37 , मत्स्य पुराण अध्याय 271 पद 51-52 और हरिवंश पुराण खण्ड 1 अध्याय 52 के साथ ही पौराणिक ग्रन्थों में उपलब्ध अनेक साक्ष्यों के अनुसार श्रीकृष्ण का जन्म श्रीमुख नामक चक्रीय वर्ष में भाद्रमास में कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। जब उनका स्वर्गवास हुआ, वे 125 के वर्ष थे।

उनकी निधन तिथि वही है, जिस दिन 3102 ईसवी पूर्व 18 फरवरी को कलियुग प्रारम्भ हुआ। भगवान श्रीकृष्ण इस तिथि से 125 वर्ष पूर्व जन्मे थे। इससे हमें श्रीकृष्ण का जन्म वर्ष 3227 या 3228 ईसा पूर्व प्राप्त होता है। वैदिक मतानुसार वेदों में मानव इतिहास का वर्णन नहीं है, तथापि आधुनिक विद्वानों के अनुसार ऋग्वेद में कृष्ण को दानव और इन्द्र का शत्रु बताया गया है, और उसका नाम श्यामवर्ण आर्यपूर्व लोगों का द्योतक है। कृष्णाख्यान का मूलाधार यह है कि वह एक वीर योद्धा था और यदु कबीले का नर-देवता था। ऐसे विद्वानों के अनुसार प्राचीनतम वेद ऋग्वेद में जिन पाँच प्रमुख जनों यानी कबीलों का उल्लेख मिलता है उनमें से यदु क़बीला एक था परन्तु सूक्तकारों ने, पंजाब के कबीलों में निरंतर चल रहे कलह से जनित तत्कालीन गुटबंदी के अनुसार, इन यदुओं को कभी धिक्कारा है तो कभी आशीर्वाद दिया है।

कृष्ण सात्वत भी है, अंधक-वृष्णि भी, और मामा कंस से बचाने के लिए उसे गोकुल (गोपालकों के कम्यून) में पाला गया था। इस स्थानांतरण ने उसे उन आभीरों से भी जोड़ दिया जो ईसा की आरंभिक सदियों में ऐतिहासिक एवं पशुपालक लोग थे, जो आधुनिक अहीर जाति के पूर्वज हैं। भविष्यवाणी थी कि कंस का वध उसकी बहिन , कहीं-कहीं कुछ प्राप्त उल्लेखों में पुत्री भी कहा गया है, देवकी के पुत्र के हाथों होगा, इसलिए देवकी को उसके पति वसुदेव सहित कारागार में डाल दिया गया था। बालक कृष्ण-वासुदेव अर्थात वसुदेव का पुत्र गोकुल में बड़ा हुआ, उसने इन्द्र से गोधन की रक्षा की और अनेक मुँहवाले विषधर कालिय नाग का, जिसने मथुरा के पास यमुना के एक सुविधाजनक डबरे तक जाने का मार्ग रोक दिया था, मर्दन करके उसे खदेड़ दिया, उसका वध नहीं किया। तब कृष्ण और उसके अधिक बलशाली भाई बलराम ने, भविष्यवाणी को पूरा करने के पहले, अखाड़े में कंस के मल्लों को परास्त किया। श्रीकृष्ण ने कंस को मारकर 125 वर्ष के अपने जीवन काल में में भारतीय एकता व वैदिक जीवन दर्शन का अनुपम उदहारण प्रस्तुत किया जो आज भी वन्दनीय व पूजनीय बन लोगों के हृदय में विराजते हैं।

उल्लेखनीय है कि श्रीकृष्ण का नाम समस्त प्राचीन ग्रन्थों में यहाँ तक की वेदों में भी प्राप्य है। ऋग्वेद संहिता में कृष्ण का नाम अनेक बार आया है। ऋग्वेद प्रथम मंडल के 116 सूक्त के 23 वें मन्त्र और 119 सूक्त के में कृष्ण का नाम है, परन्तु वह कौन है यह जानने का कोई उपाय नहीं है ? संभवतः वे वसुदेव के पुत्र नहीं हैं । इसके बाद एक और कृष्ण हैं जो ऋग्वेद संहिता के अनेक सूक्तों के ऋषि हैं । अथर्व संहिता कृष्णकेशी नामक असुर के हन्ता की कथा है। वे वसुदेवनन्दन ही हैं, इसमें कोई संदेह नहीं। बौद्ध शास्त्र के बीच ललित विस्रार में कृष्ण नाम मिलता है । बौद्ध शास्त्रों में सूत्रपिटक सर्वापेक्षा प्राचीन है, इसमें भी कृष्ण नाम है । इस ग्रन्थ में कृष्ण को असुर कहा गया है । ऋग्वेद संहिता के अष्टम मंडल के 85,86 87  सूक्त एवं दशम मंडल के 42,43,44 सूक्तों के रचयिता कृष्ण हैं । ये कृष्ण देवकीनन्दन कृष्ण हैं अथवा नहीं – इसका निर्णय करना कठिन है ।

 

छान्दोग्यउपनिषद् में एक प्रसंग है- तद्धेतद् घोर आंगिरसः कृष्णाय देवकीपुत्राय उक्त्वा उवाच । अपिपास एव स बभूव । सोऽन्तवेलायामेतत्त्रयं  प्रतिपद्येत् अक्षितमसि अच्युतमसि प्राणसंशितमसिति ।

आंगिरस वंशीय घोर (नामक ऋषि) ने देवकी पुत्र कृष्ण को यह बात बतलाकर कहा (सुनकर वे भी पिपाशा शून्य हो गये) कि अन्तकाल में इन तीन बातों का अवलोकन कर लेना चाहिए – तुम अक्षित हो, तुम अच्युत हो , तुम प्राण संशित हो।

श्रीकृष्ण का वर्णन अनेक पौराणिक ग्रन्थों में उपलब्ध होता है, उनमे मुख्य हैं – महाभारत, हरिवंश और पुराण । पुराणों की संख्या अठारह हैं। उन सबमें कृष्ण का वृत्तांत नहीं है, केवल ब्रह्म, पद्म, विष्णु, आयु, श्रीमद्भागवत् , ब्रह्मवैवर्त, स्कन्द, वामन और कूर्म में है। महाभारत में प्राप्त तथा उपरिलिखित अन्य ग्रंथों में  उपलब्ध कृष्ण जीवनी में अंतर है। जो महाभारत में है वह हरिवंश तथा पुराणों में नहीं है और जो हरिवंश और पुराणों में विद्यमान है, वह महाभारत में नहीं मिलता। ब्रह्म पुराण के अन्तिमांश उत्तर भाग में श्रीकृष्ण चरित्र का विस्तृत विवरण अंकित है। विष्णु पुराण के पंचमांश में भी ऐसा ही वर्णन है, दोनों वर्णन एक ही हैं कोई भी अंतर नहीं है। मत्स्य पुराण अध्याय छप्पन में कृष्णाष्टमी का विशद विवरण अंकित है। इसमें भाद्रपद कृष्ण पक्ष अष्टमी तिथि को मनाई जाने वाली कृष्णाष्टमी व्रत की विधि एवं महात्म्य का चर्चा करते हुए कहा गया है कि यह व्रत समस्त पापों का विध्वंस करने वाला है। इसका अनुष्ठान करने से मनुष्यों को विशेष रूप से शान्ति, मुक्ति एवं विजय की प्राप्ति होती है।

श्रीकृष्ण को सोलह कलाओं से युक्त पूर्ण अवतारी पुरुष माना जाता है। पुरुष शब्द के दो अर्थ हैं। पुरुष शब्द का सामान्य अर्थ जीव है, जिसे आत्मा से संबोधित किया जाता है। और दूसरा पुरुष शब्द का प्रयोग परमात्मा के लिए भी किया जाता है, जिसने इस सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की रचना, धारण और प्रलय आदि का पुरुषार्थ किया और करता है। परमात्मा जो पुरुष है वह अनेकों कलाओं और विद्याओं से पूर्ण है, जबकि जीव पुरुष अल्पज्ञ होने से कुछ कलाओ में निपुण हो पाता है। इसी कारण जीव ईश्वर नहीं हो सकता। क्योंकि जीव का दायित्व है कि ईश्वर के गुणों को आत्मसात करे, इसीलिए कृष्ण ने योग और ध्यान के माध्यम से ईश्वर के इन्ही सोलह गुणों अर्थात कलाओं को प्राप्त किया था और यही कारण है कि उन्हें सोलह कला पूर्ण अवतारी पुरुष कहा जाता है। सोलह कलाएँ वस्तुतः बोध प्राप्त योगी की भिन्न-भिन्न स्थितियाँ हैं। बोध की अवस्था के आधार पर आत्मा के लिए प्रतिपदा से लेकर पूर्णिमा तक चन्द्रमा के प्रकाश की 15 अवस्थाएं ली गई हैं। अमावास्या अज्ञान का प्रतीक है तो पूर्णिमा पूर्ण ज्ञान का।

श्रीमदभगवदगीता में भगवान् श्रीकृष्ण ने आत्म तत्व प्राप्त योगी के बोध की उन्नीस स्थितियों को प्रकाश की भिन्न-भिन्न मात्रा से बताया है। इसमें अग्निर्ज्योतिरहः बोध की 3 प्रारंभिक स्थिति हैं और शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम्‌ की 15 कला शुक्ल पक्ष की एक हैं। इनमें से आत्मा की 16 कलाएँ हैं।

प्रश्नोपनिषद के शत० 4.4.5.6 में सोलह कलाओं के सम्बन्ध में स्पष्ट वर्णन करते हुए कहा गया है कि इच्छा, प्राण, श्रद्धा, पृथ्वी, जल अग्नि, वायु, आकाश, दशो इन्द्रिय, मन, अन्न, वीर्य, तप, मन्त्र, लोक और नाम इन सोलह के स्वामी को प्रजापति कहते हैं। योगेश्वर श्रीकृष्ण ने योग और विद्या के माध्यम से इन सोलह कलओं को आत्मसात कर धर्म और देश की रक्षा की, आर्यवर्त के निवासियों के हृदय में महापुरुष के रूप में स्थापित हो गए। कृष्ण ने अपने उत्तम कर्मो और योग माध्यम से इन सभी सोलह गुणों को आत्मसात कर आत्मा के उद्देश्य को पूर्ण किया इसीलिए उन्हें कालानतर में पूर्ण अवतारी पुरुष की संज्ञा प्रदान करते हुए ईश्वर विष्णु अवतार के रूप में आत्मसात कर पूजनीय मान लिया गया।

यह भी उल्लेखनीय है कि ईश्वर और जीव अलग अलग हैं। यजुर्वेद में कहा है –

यस्मान्न जातः परोअन्योास्ति याविवेश भुवनानि विश्वा।

प्रजापति प्रजया संरराणस्त्रिणी ज्योतींषि सचते स षोडशी। ।

-यजुर्वेद अध्याय 8 मन्त्र 36

अर्थात- गृहाश्रम की इच्छा करने वाले पुरुषों को चाहिए कि जो सर्वत्र व्याप्त, सब लोकों का रचने और धारण करने वाला, दाता, न्यायकारी, सनातन अर्थात सदा ऐसा ही बना रहता है, सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान परमात्मा जिससे कोई भी पदार्थ उत्तम व जिसके सामान नहीं है, उसकी उपासना करे।

इस मन्त्र में सचते स षोडशी पुरुष के लिए आया है, पुरुष जीव और परमात्मा दोनों को ही सम्बोधन है और दोनों में ही सोलह गुणों को धारण करने की शक्ति है, मगर ईश्वर में ये सोलह गुण के साथ अनेकों विद्याएँ यथा (त्रीणि) तीन (ज्योतिषी) ज्योति अर्थात सूर्य, बिजली और अग्नि को (सचते) सब पदार्थो में स्थापित करता है। ये जीव पुरुष का कार्य कभी नहीं हो सकता न ही कभी जीव पुरुष कर सकता क्योंकि जीव अल्पज्ञ और एकदेशी है जबकि ईश्वर सर्वज्ञ और सर्वव्यापी है, इसी हेतु से जीव पुरुष को जो गृहाश्रम की इच्छा करने वाला हो, ईश्वर ने सोलह कलाओं को आत्मसात कर मोक्ष प्राप्ति के लिए वेद ज्ञान से प्रेरणा दी है, ताकि वो जीव पुरुष उस परम पुरुष की उपासना करता रहे। ठीक वैसे ही जैसे सोलह कला पूर्ण अवतारी पुरुष योगेश्वर कृष्ण उस सत, अविनाशी, चैतन्य और आनंदमय, नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्तस्वभाव और सब पदार्थो से अलग रहने वाला, छोटे से छोटा, बड़े से बड़ा, सर्वशक्तिमान, परम पुरुष परमात्मा की उपासना करते रहे।

उल्लेखनीय है कि अवतारों में पूर्णावतार श्रीकृष्ण को ही माना जाता है और उन्हें साक्षात विष्णु कहा जाता है। श्रीकृष्ण को सोलह कलाओं से युक्त अवतार माना गया है। अतः अवतारवाद भागवत धर्म के अभिन्न रूप के साथ प्रारम्भ हुआ जिसके प्रतिष्ठाता श्रीकृष्ण हुए। श्रीकृष्ण की यह भक्ति ही आगे चलकर भागवत धर्म का मूलाधार बनी । भागवत धर्म के इतिहास पाणिनी सूत्र की साक्षी अमूल्य है , जो श्रीकृष्ण भक्ति की प्राचीनता को प्रदर्शित करता है ।

वासुदेवार्ज्जुनाभ्यां वुन । – पाणिनी सूत्र 4/3/98

अर्थात- वासुदेव और अर्जुन शब्दों पर षष्ठी विभक्ति के अर्थ में वुन प्रत्यय हो ।

वासुदेवार्ज्जुनाभ्यां वुन सूत्र से वासुदेवक और अर्जुनक शब्दों का अर्थ वासुदेव का उपासक और अर्जुन का उपासक  निकलता है। अतः यह सिद्धप्राय है कि पाणिनी सूत्र की रचना के पूर्व ही कृष्णार्जुन देवता के रूप में स्वीकृत हो गये थे ।

वासुदेव – संकर्षण (पाणिनी सूत्र 8/1/15) व्याकरण के उदाहरणों में जुड़वाँ देवता के रूप में है । महाभारत में श्रीकृष्ण व कृष्ण सखा अर्जुन की पूजा का वर्णन है ।  इसमें नर- नारायण की सह्पूजा थी , जिसमें नारायण प्रधान और नर उनके सखा थे । इसी को नारायणीय धर्म कहा है । महाभारत शान्ति पर्व 339 अध्याय में नारायणीय धर्म का विशेष रूप से वर्णन अंकित है । वासुदेव और अर्जुन का ही नामान्तर नर- नारायण है ।नर- नारायण की भांति संकर्षण और वासुदेव नए भक्ति धर्म का मुख्य सूत्र बन गया ।  इसी में आगे चलकर प्रद्युम्न और अनिरूद्ध के मिलने से चतुर्व्यूह का स्वरुप पूरा हुआ , जो पांचरात्र धर्म की सुनिष्पन्न मान्यता बनी । चतुर्व्यूह का सम्यक वर्णन महाभारत शान्ति पर्व अध्याय 49 में अंकित है ।

https://youtu.be/gbchV_lSXKk

अशोक ‘प्रवृद्ध’

साभार नया इंडिया 

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