कांग्रेस अध्यक्ष श्री मल्लिकार्जुन खड़गे को आशंका है कि यदि इस साल होने वाले आम चुनाव में माननीय प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी फिर आ गए तो ये देश के लिए आखरी चुनाव होंगे ,क्योंकि इसके बाद मोदी जी स्वयंभू हो जायेंगे । यानि मोदी जी रूस के राष्ट्रपति पुतिन या उत्तर कोरिया के राष्ट्रपति किम जोंग या चीन के राष्ट्रपति शी पिंग के रास्ते पर जाकर देश में तानाशाही थोप देंगे। खड़गे देश के वरिष्ठ नेता हैं। वे प्रधानमंत्री मोदी जी से भी उम्र और अनुभव में बड़े हैं इसलिए उनकी आशंका को हल्के में नहीं लिया जा सकता।देश की राजनीति में पिछले एक दशक से जो उठापटक हो रही है ,उसकी वजह से ऐसी आशंकाएं जन्म लेती हैं और ये बहुत स्वाभाविक है। जो आशंका देश की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी के मन में है वही आशंका इस देश के आम आदमी के मन में भी हो ये जरूरी नहीं है ,भले ही कांग्रेस की और खड़गे जी की आशंका निर्मूल न हो। निश्चित ही देश लोकतंत्र से एक तंत्र की और बढ़ रहा है। भारतीय लोकतंत्र पूर्व में इस तरह के घटनाक्रम से कभी नहीं गुजरा । 1975 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने एक बार लोकतंत्र को बंधक बनाने का प्रयास करते हुए देश में आपातकाल लगाया था किन्तु उसकी उम्र भी 19 महीने से ज्यादा नहीं रही। जनता ने वापस लोकतंत्र की बहाली कर दी थी ,लेकिन आज स्थितियां एकदम भिन्न हैं /
भारत में आज लोकतंत्र को चुनौती देने के लिए किसी तरह का आपातकाल नहीं लगाया गया है लेकिन सरकार की जो गतिविधियां हैं वे आपातकाल से भी जायदा खतरनाक और भयावह हैं। सरकार ने एक दशक में तमाम संवैधानिक संस्थाओं को बंधुआ बना लिया है या उन्हें बधिया [नसबंदी ] कर दिया है। आम जनता को धर्म का डबल डोज देकर ‘ हिस्टीरिया ‘ पैदा करने की कोशिशें भी लगातार जारी हैं। राजनीति में तोड़फोड़ का अनूठा दौर इसी दशक की देन है। जनादेश की धज्जियां उड़ने का नया कीर्तिमान इसी दशक में बना है। मध्यप्रदेश,महाराष्ट्र के बाद बिहार में ये खेल होते पूरी दुनिया देख रही है। कोई इस खेल को रोकने वाला नहीं है। न संविधान और न जनता। सबके सब असहाय नजर आ रहे हैं।देश की आजादी की और संविधान की स्थापना की हीरक जयंती वर्ष को देश का अमृतकाल कहा गया लेकिन अमृत पात्र में विष भरकर दे दिया गया और किसी को कानों-कान खबर भी न हुई। अदावत की राजनीति के चलते समूचे विपक्ष को लंगड़ा -लूला बनाने के लिए कहीं बिभीषणों का सहारा लिया तो कहीं पल्टूरामों का इस्तेमाल किया जा रहा है। हालाँकि ये सब निराश करने वाला घटनाक्रम है किन्तु जब कोई कुछ कर नहीं पा रहा तो इसे ख़ुशी-ख़ुशी स्वीकार कर लेना ही पहला और अंतिम विकल्प लगता है ,किन्तु इस देश की जनता ने अलग-अलग समय में मुगलों और अंग्रेजों की दासता को झेला है ,वो इतनी आसानी से देश में तानाशाही को अपना शिकंजा नहीं कसने देगी।ये तथ्य है कि तानाशाही दबे पांव आती है ,लेकिन उसकी आह्ट सुनने वाले सुन ही लेते है। आज खड़गे साहब ने, उनकी कांग्रेस ने सुनी है कल पूरा देश इस आहट को सुनेगा। देश यानि आम जनता यदि अपने वोट की ताकत से तानाशाही को नहीं रोकेगी तो और कोई दूसरा रास्ता है भी नहीं। वोट का हथियार भी मानव सृजित मशीनों ने मोथरा बना दिया है। चुनाव की प्रक्रिया दूषित और अविश्वसनीय हो चुकी है । जनता जनादेश से कुछ बदलना भी चाहे तो बदल नहीं सकत। बिहार इसका ताजा उदाहरण है । बिहार की जनता ने जो जनादेश दिया था उसकी धज्जियां धर्मपरायण भाजपा और धर्मनिरपेक्षता की दुहाई देने वाली जेडीयू ने मिलजुलकर उड़ा दी हैं। इन हरकतों के खिलाफ जनता कहाँ जाये ? अदालतें इस तरह के अलोकतांत्रिक क्रियाकलापों को रोने में असमर्थ है और अयोध्या के राम मंदिर में इस तरह के मामले सुने नहीं जाते। वहां सिर्फ जयकारे लगाए जाते हैं। अयोध्या में मंदिर सरकारी है इसलिए स्वाभाविक रूप से वहां विराजे रामलला भी सरकार के ही पक्षधर हैं ।कुल मिलाकर स्थिति गंभीर है। अब लोकतंत्र की लड़ाई गैर भाजपा दलों के साथ ही आम जनता को ही लड़ना पड़ेगी । यद जनता चाहती है कि -देश को भाड़ में जाने दिया जाये ‘ तो जाने दिया जाये। जनता खुद भुगतेगी। और यदि जनता चाहती है कि जो देश हमें 1947 में बनाने के लिए मिला था उसे ही बचाया और बनाया जाये तो फिर सभी को जनता के साथ खड़े हो जाना चाहिए। जनता से बड़ा कोई नहीं है । न धर्म ,न कानून और न कोई तानाशाह। ये मेरी मान्यता है। इसका खड़गे की और कांग्रेस की मान्यता से कोई लेना-देना नहीं है। क्योंकि एक आम आदमी किसी गठबंधन का हिस्सा नहीं होता। उसे अपनी पसंद से अपने लिए अपने प्रतिनिधि चुनने का अधिकार अभी तक तो हासिल है । कल जब नहीं होगा ,तब की बात और है। तब मुमकिन है कि हम और आप इस विषय पर बात ही न कर पाएं।
@ राकेश अचल