हिजाब विवादः राजनीति का घिनौना चेहरा…

हिजाब विवादः राजनीति का घिनौना चेहरा…

भारतीय राजनीति का स्तर वर्तमान परिदृष्य में किस पायदान पर जा पहुंचा है उसके कई उदाहरण आये दिन सुर्खियों में छाये रहते है कई प्रकार के सामाजिक राजनैतिक संवेदनषीन मुददो पर भी राजनेताओं की बयानबाजी अपने निम्नतम स्तर पर जाकर ठहाके लगाती है और आमजनमानस को मुख्य धारा से भटकाने का काम करती है। राजनैतिक और नीतिनिर्धारण संबधी क्षेत्रों में लोकतंत्र की इस तासीर को फिर भी समझा जा सकता है।
लेकिन दक्षिण के राज्य कर्नाटक से शुरू हुई हिजाब पहनने को लेकर जो राजनीति की जा रही है वह सीधे देश  के युवाओं से जुड़ी हुई है और उस संस्था पर राजनीति का सीधा अतिक्रमण है जिसकी गोद में प्रलय और निर्माण दोनो पलते है और दुख की बात है कि इस संवेदनषील मुददे पर देश के तमाम बड़े सियासी दल एक दूसरे के सामने खड़े हुए है। पूरे विवाद की षुरूवात कर्नाटक के उडुपी में सरकारी कॉलेज से शुरू हुआ जहां हिजाब पहनकर आ रहीं छात्राओं को क्लास में आने से रोका गया मुददा इतना गरमाया कि मंगलवार को इसने हिंसा का रूप ले लिया। और राज्य में तीन दिनों के लिये षिक्षण संस्थानो को बंद कर दिया गया।

अब सवाल यह उठता है कि यदि शिक्षक या शिक्षण संस्था द्धारा इस प्रकार की आपत्ति ली गई तो इसमें गलत क्या है शिक्षण संस्था का ध्येय और लक्ष्य ही सबको समान रूप से शिक्षा का दान देने का है फिर चाहे वह किसी भी जाति वर्ग से हो यह इस देश की परंपरा रही है जहां गुरूकुल में राजवंष के विधार्थी हो या साधारण परिवार से संबध रखने वाले विधार्थी सभी को समान रूप से गुरूकुल के नियमों का पालन करना होता था कृष्ण, बलराम हों या सुदामा सभी के लिये शिक्षा के समान नियम होते थे रहन सहन खान पान सब एक सामान और यही शिक्षा का अनुषासन होता है जहां समान वेषभूषा छात्रों के मन से हर भेदभाव को समाप्त कर देती है फिर चाहे वह अमीरी-गरीबी का हो जात-पात का हो या धर्म को हो ।

लेकिन भारत देष में जो हो रहा है वह समझ से परे है कि शिक्षा के माध्यम से हम भविष्य की नीव तैयार कर रहे है या फिर वापिस उसी युग में जाना चाहते है जहां से उन्न्त होकर मानव सभ्यता विकास का दावा करती है। पर्दा प्रथा नारी समाज के लिये वरदान है या अभिषाप और यदि यह स्वैच्छिक स्वतंत्रता का अधिकार भी है तो इसके मापदंड या सीमायें क्या है? क्या सार्वजनिक षिक्षण संस्थानों में धर्म के आधार पर पहनावा उचित है ?, क्या स्वतंत्रता का अधिकार सिर्फ नागरिको के लिये है शिक्षा देने वाली संस्थाओं को शिक्षा संबंधी नीति निर्धारण का भी अधिकार नही होना चाहिए ?
इन सभी मुददो पर खुले मन से बहस की आवष्यकता है लेकिन ये दुर्भाग्य ही है कि युवाओं के भविष्य से जुड़े ऐंसे मुददों पर भी राजनैतिक दल सिर्फ पक्ष विपक्ष की सत्तासीन सरकारों को देखकर ही राजनैतिक रोटियां सेकने का काम करते है और कम उम्र में इसका षिकार होने वाले युवा एक दूसरे के सामने खड़े होते है इस मुददे पर भी यही हुआ कर्नाटक में हुए घटनाक्रम को सभी दल भाजपा सरकार होने के कारण ही पक्ष विपक्ष में बयानबाजी कर रहे है और उत्तरप्रदेष में होने वाले चुनावी समीकरणों में नफा नुकसान तलाष रहे है।
कांग्रेस की ओर से प्रियंका गांधी ने हिजाब का सर्मथन करते हुए कहा कि महिलाओं को अपनी पसंद के कपड़े पहनने का पूरा हक है फिर चाहे वह बिकनी पहने,घूघट डाले या फिर जींस पहने। उन्हे प्रताणित करना बंद करें ।  तो सवाल यह है कि क्या महिलाओं द्धारा पहने जाने वाले कपड़ो की कोई निजी या सार्वजानिक मर्यादा या नैतिकता नही होनी चाहिए क्या आगे से धर्म के आधार पर ही शिक्षा ,पहनावा और सेेवाओं का वर्गीकरण किया जायेगा तब फिर हम विकास के पहिये को किस दिषा मेें घुमा रहें है।  ये सोचने वाली बात है जिन कुप्रथाओं को समाप्त करने में सदियों का समय लगा धर्म के नाम पर फिर से उनका नवीनीकरण करना क्या उचित है या फिर सिर्फ राजनैतिक विरोध के चलते किसी भी सामाजिक मुददे को आंख मूदकर सर्मथन या विरोध कर विवादग्रस्त बना देना ही हमारे राजनैतिज्ञो का काम है और यदि एंसा है तो भारतीय राजनीति अपने सबसे घिनौने दौर से गुजर रही है।

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