सनातन हिन्दू धर्म में एकादशी व्रत का विशेष महत्त्व मन गया है । प्रत्येक माह के दो पक्ष शुक्ल पक्षः और कृष्ण पक्ष की एकादशी तिथि को भगवान विष्णु की उपशना एवं व्रत रखकर रात्रि जागरण के प्र्भाव को अत्यंत शुभ फलदाता मन गया है । वर्ष के प्रारम्भ में प्रथम चैत्र शुक्ल एकादशी को कामदा एकादशी कहा जाता है। यह बहुत ही फलदायी होने के कारण इसे फलदा एकादशी भी कहते हैं। पुराणों में इसे श्रीविष्णु का उत्तम व्रत कहा गया है। कामदा एकादशी व्रत के पुण्य से जीवात्मा को पाप से मुक्ति मिलती है। यह एकादशी कष्टों का निवारण करने वाली और मनोवांछित फल देने वाली होने के कारण फलदा और कामना पूर्ण करने वाली होने से कामदा कही जाती है।
आगामी चैत्र शुक्ल एकादशी तदनुसार 12 अप्रैल 2022 दिन मंगलवार को कामदा एकादशी है। चैत्र मास के शुक्ल पक्ष की एकादशी का अपना पृथक विशिष्ट महत्व होने का कारण वैष्णव संस्कृति में यह अन्य एकादशियों से और भी खास मानी गई है। कारण है कि यह भारतीय काल गणना प्रणाली में संवत्सर की पहली एकादशी होती है। चैत्र शुक्ल एकादशी को कामदा एकादशी कहा जाता है। यह बहुत ही फलदायी होने के कारण इसे फलदा एकादशी भी कहते हैं। पुराणों में इसे श्रीविष्णु का उत्तम व्रत कहा गया है। कामदा एकादशी व्रत के पुण्य से जीवात्मा को पाप से मुक्ति मिलती है। यह एकादशी कष्टों का निवारण करने वाली और मनोवांछित फल देने वाली होने के कारण फलदा और कामना पूर्ण करने वाली होने से कामदा कही जाती है। इस एकादशी की कथा व महत्व श्रीकृष्ण ने पाण्डु पुत्र युधिष्ठिर को बताया था। इससे पूर्व राजा दिलीप को यह महत्व वशिष्ठ मुनि ने बताया था। मान्यतानुसार कामदा एकादशी का व्रत रखने व्रती को प्रेत योनि से भी मुक्ति मिल सकती है। समस्त पापों की शांति के उद्देश्य से की जाने वाली चैत्र शुक्ल पक्ष की कामदा एकादशी ब्रह्महत्या आदि पापों तथा पिशाचत्व आदि दोषों का नाश करनेवाली है। इसके पढ़ने और सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल मिलता है।
मान्यतानुसार मनोवांछित फल प्रदाता और समस्त कामना पूर्ण करने वाली कामदा एकादशी व्रत चैत्र शुक्ल पक्ष एकादशी के दिन किया जाता है। पौराणिक कथानुसार धर्मावतार महाराज युधिष्ठिर के द्वारा पूछे जाने पर वसुदेव-देवकी नंदन भगवान श्री कृष्ण ने चैत्र मास के शुक्ल पक्ष में स्थित कामदा एकादशी का विधान व माहात्म्य बतलाते हुए कहा कि एक समय यही प्रश्न राजा दिलीप ने अपने गुरुदेव वशिष्ठ जी से किया था। तब उन्होंने जो उत्तर दिया था वही मैं आपकी जिज्ञासा शांत करने हेतु श्रवण कराता हूं, आप एकाग्रचित्त से श्रवण करें। राजा दिलीप की जिज्ञासा शांत करते हुए महर्षि वशिष्ठ जी बोले- चैत्र माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को की जाने वाली कामदा एकादशी व्रत पापों को भस्म करने वाली है। इसके व्रत से कुयोनि छूट जाती है और अंत में स्वर्ग की प्राप्ति होती है। यह पुत्र प्राप्त कराने वाली एवं संपूर्ण कामनाओं को पूर्ण करने वाली है। कामदा एकादशी के व्रत में पहले दिन दशमी के मध्याह्न में जौ, गेहूं और मूंग आदि का एक बार भोजन करके भगवान् विष्णु का स्मरण करन चाहिए । दूसरे दिन (एकादशी को) प्रातः स्नानादि करके ममाखिल पापक्षयपूर्वक परमेश्वर प्रातिकामनया कामदैकादशीव्रतं करिष्ये । यह संकल्प करके जितेन्द्रिय होकर श्रद्धा, भक्ति और विधिपूर्वक भगवान का पूजन करना चाहिए । उत्तम प्रकार के गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य आदि अर्पित करके नीराजन करने के पश्चात जप, हवन, स्तोत्र पाठ और मनोहर गीत-संगीत और नृत्य करके प्रदक्षिणा कर दण्डवत करना चाहिए । इस प्रकार भगवान की सेवा और स्मरण में दिन व्यतीत करके रात्रि में कथा, वार्ता, स्तोत्र पाठ तथा भजन, संकीर्तन आदि के साथ जागरण करें। फिर द्वादशी को भगवान विष्णु का पूजन करके ब्राह्मण भोजनादि कार्यों को पूर्ण कर पारण व भोजन करना चाहिए । इस प्रकार जो चैत्र शुक्ल पक्ष में कामदा एकादशी का व्रत रखता है उसकी सभी मनोकामना पूर्ण होती है।
अनेक पुराणों में कामदा एकादशी की कथा अंकित है, लेकिन प्रायः सभी स्थानों पर एक ही कथा मिलती है, जो महर्षि वशिष्ठ के द्वारा राजा दिलीप को पूर्व में तथा बाद में श्रीकृष्ण के द्वारा युद्धिष्ठिर को सुनाई गई है। कथा के अनुसार महर्षि वशिष्ठ द्वारा राजा दिलीप को सुनाई गई कामदा एकादशी व्रत की पौराणिक कथा युद्धिष्ठिर को सुनाते हुए कहा कि
प्राचीन काल में स्वर्ण और रत्नों से सुशोभित भोगिपुर नामक नगर में अनेक ऐश्वर्यों से युक्त पुण्डरीक नाम का एक राजा राज्य करता था। भोगीपुर नगर में अनेक अप्सरा, किन्नर तथा गन्धर्व वास करते थे। इसी नगर में ललित और ललिता नामक गंधर्व पति-पत्नी युगल भी रहता था। ललित और ललिता एक दूसरे से बहुत प्यार करते थे, यहां तक कि दोनों के लिये क्षण भर की जुदाई भी पहाड़ जितनी लंबी हो जाती थी। एक दिन राजा पुण्डरिक की सभा में नृत्य का आयोजन चल रहा था जिसमें गंधर्व गा रहे थे और अप्सराएं नृत्य कर रही थीं। गंधर्व ललित भी उस दिन सभा में गा रहा था लेकिन गाते-गाते वह अपनी पत्नी ललिता को याद करने लगा और उसका स्वर, लय एवं ताल बिगडने लगे। इस त्रुटि को कर्कट (कर्कोट) नामक नाग ने उसकी इस गलती को भांप लिया और उसके मन में झांक कर इस गलती का कारण जान राजा पुण्डरिक को बता दिया। पुण्डरिक यह जानकर बहुत क्रोधित हुए और ललित को श्राप देकर एक विशालकाय राक्षस बना दिया। जब उसकी प्रियतमा ललिता को यह वृत्तान्त मालूम हुआ तो उसे अत्यंत दुःख व खेद हुआ।ललित वर्षों वर्षों तक राक्षस योनि में घूमता रहा। उसकी पत्नी ललिता भी उसी का अनुकरण करती रही। अपने पति को इस हालत में देखकर वह बडी दुःखी होती थी। वह भी राक्षस योनि में विचरण कर रहे ललित के पीछे-पीछे चलती और उसे इस पीड़ा से मुक्ति दिलाने का मार्ग खोजती।
एक दिन चलते-चलते वह श्रृंगी ऋषि के आश्रम में जा पंहुची और ऋषि को प्रणाम किया अब ऋषि ने ललिता से आने का कारण जानते हुए कहा हे देवी इस बियाबान जंगल में तुम क्या कर रही हो और यहां किसलिए आयी हो। तब ललिता ने सारी व्यथा महर्षि के सामने रखदी। ललिता बोली कि मेरा नाम ललिता है। मेरा पति राजा पुण्डरीक के श्राप से विशालकाय राक्षस हो गया है। इसका मुझको महान दुःख है। उसके उद्धार का कोई उपाय बतलाइए। श्रृंगी ऋषि बोले अब कुछ दिन बाद चैत्र शुक्ल एकादशी आने वाली है, जिसका नाम कामदा एकादशी है। इसका व्रत करने से मनुष्य के सब कार्य सिद्ध होते हैं। यदि तू कामदा एकादशी का व्रत कर उसके पुण्य का फल अपने पति को दे तो वह शीघ्र ही राक्षस योनि से मुक्त हो जाएगा और राजा का श्राप भी अवश्यमेव शांत हो जाएगा। ललिता ने मुनि की आज्ञा का पालन करते हुए ठीक वैसा ही किया जैसा ऋषि श्रृंगी ने उसे बताया था। ललिता ने मुनि के आश्रम में ही एकादशी व्रत का पालन किया और द्वादशी के दिन व्रत का पुण्य अपने पति को दे दिया। व्रत के पुण्य से वह राक्षस रूप से पुन: अपने पुराने सामान्य स्वरूप में लौट आया और कामदा एकादशी के व्रत के प्रताप से ललित और ललिता दोनों विमान में बैठकर स्वर्ग लोक में वास करने लगे।
ऐसी मान्यता है कि इस व्रत को विधिपूर्वक करने से समस्त पाप नाश हो जाते हैं तथा राक्षस आदि की योनि भी छूट जाती है। संसार में इसके बराबर कोई और दूसरा व्रत नहीं है। इसकी कथा पढ़ने या सुनने से वाजपेय यज्ञ का फल प्राप्त होता है। पौराणिक मान्यतानुसार जो एकादशी के दिन ॠषियों द्वारा बनाये हुए दिव्य स्तोत्रों से, ॠग्वेद , यजुर्वेद तथा सामवेद के वैष्णव मन्त्रों से, संस्कृत और प्राकृत के अन्य स्तोत्रों से व गीत वाद्य आदि के द्वारा भगवान विष्णु को सन्तुष्ट करता है उसे भगवान विष्णु भी परमानन्द प्रदान करते हैं ।पौराणिक उक्ति है –
य: पुन: पठते रात्रौ गातां नामसहस्रकम् ।
द्वादश्यां पुरतो विष्णोर्वैष्णवानां समापत: ।
स गच्छेत्परम स्थान यत्र नारायण: त्वयम् ।
अर्थात – जो एकादशी की रात में भगवान विष्णु के आगे वैष्णव भक्तों के समीप गीता और विष्णुसहस्रनाम का पाठ करता है, वह उस परम धाम में जाता है, जहाँ साक्षात् भगवान नारायण विराजमान हैं ।
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