राजनीतिनामा

लोकतंत्र से पहले ठिठुरती संसद

संसद का शीतसत्र समाप्त हो गया,साथ ही दे गया दोनों सदनों के 146 सदस्यों को निलंबन की सजा भी । इस सत्र में चार महत्वपूर्ण विधेयक पारित किये गए ,इसके साथ ही लोकतंत्र के सिकुड़ने का सिलसिला भी शुरू हो गया है । देश की संसद किसी शीत सत्र में पहली बार ठिठुरी है ,अन्यथा संसद का कोई भी सत्र हो, गर्म ही होता रहा है। नए साल में भी आप अब संसद के जितने भी सत्र देखेंगे वे इसी तरह ठिठुरते नजर आएंगे। ठिठुरती संसद और ठिठुरता लोकतंत्र अब राजनीति विज्ञान के छात्रों के लिए नया विषय होगा।देश के संविधान निर्माताओं ने भी ये कल्पना नहीं की होगी कि देश की संसद इतनी बुरी तरह से ठिठुरेगी और उसे ठिठुरने पार अपने ही लोग विवश करेंगे। संसद में बहुमत का इतना व्यापक दुरूपयोग आजादी के बाद पहली बार किया गया है और यदि अगले साल होने वाले आम चुनाव में संसद की तस्वीर न बदली तो इसी तरह बार-बार सदस्यों को थोक में निलंबित कर क़ानून बनाये जायेंगे ,और लोकतंत्र एक कौने में खड़ा टसुए बहाता रहेगा।भारतीय संसद का अमृतकाल अभी दो साल दूर है,लेकिन अमृतकाल में पहुँचने से पहले ही भारतीय संसद को विषकाल से गुजरना पड़ रहा है। ये संसद का दुर्भाग्य है या सौभाग्य ये हम तय नहीं कर सकते। देश में पहले आम चुनाव वर्ष 1951-52 में हुए थे । राज्यसभा और लोकसभा के सदस्यों का प्रथम निर्वाचन मई, 1952 में हुआ; राज्यसभा के एक-तिहाई सदस्य हर दो वर्ष में बदल दिए जाते हैं, जबकि लोकसभा के सभी सदस्य हर पांच साल में चुने जाते हैं। देश की संसद ने इस लम्बी यात्रा में आपातकाल के रूप में एक दुःस्वप्न भी देखा लेकिन जिस तरह से सत्रहवीं लोकसभा में निर्वाचित सांसदों के साथ दंडात्मक कार्रवाई की उसने आपातकाल की कालिख को भी धूमिल कर दिया। ये बात और है कि देश इस पर न आंदोलित है और न शर्मसार।भारत ने अब तक सत्रह आम चुनाव देखे है। इन चुनावों में सबसे ज्यादा 404 सीटें जीत कर भी कांग्रेस ने सांसदों के प्रति इतनी असहिष्णुता नहीं दिखाई थी जितनी की 2019 में 303 सीटें जीतने वाली भाजपा ने दिखा दी। भाजपा सरकार के इस शासनकाल में सर्वाधिक 146 सांसदों के निलंबन का विश्व कीर्तिमान बन चुका है। ये भावी लोकतंत्र की दशा और दिशा को इंगित करने वाला घटनाक्रम है। मई 2024 से पहले होने वाले 18 वीं लोकसभा के चुनावों के बाद देश के भावी लोकतंत्र की तस्वीर भी उभरेगी। ये खूबसूरत भी हो सकती है और भयावह भी।सत्रहवीं लोकसभा और राजयसभा के पीठासीन अधिकारियों ने सत्तारूढ़ दल के एजेंटों की तरह काम किया ,ये पहले केवल आरोप थे, लेकिन अब जिस तरह से उपराष्ट्रपति जयदीप धनकड़ मिमिक्री काण्ड के बाद भाजपा कार्यकर्ता धनकड़ के समर्थन में विरोध प्रदर्शन कर रहे हैं उससे ये प्रमाणित भी हो गया कि पीठासीन अधिकारियों पर लगे आरोप सही थे। मिमक्री काण्ड में जिस तरिके से लोकसभा के अध्यक्ष,राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री ने एक सुर में विपक्ष की निंदा की है उससे भी जाहिर हो गया है कि मामला एक पद,जाति या वर्ग का नहीं बल्कि भाजपा के एक निष्ठवान कार्यकर्ता के कथित अपमान का है ,जबकि कोई भी पीठासीन अधिकारी अपने निर्वाचन के बाद किसी दल का नहीं बल्कि पूरे सदन का संरक्षक माना जाता है।
                      आपको याद दिला दूँ कि 44 साल पहले जन्मी भाजपा के पास 1984 के आम चुनाव में मात्र 02 सीटें थीं और आज चालीस साल बाद 303 सीटें हैं,यानि इन चार दशकों में भाजपा ने अप्रत्याशित लोकप्रियता हासिल की है और धर्मनिरपेक्षता की ध्वजवाहक कांग्रेस समेत तमाम दूसरे राजनीतिक दल कमजोर हुए हैं। देश में एक समय गैर कांग्रेसवाद का आंदोलन चलता था किन्तु आज गैर भाजपावाद का आंदोलन चलाया जा रहा है। इस आंदोलन के लिए अब यूपीए के स्थान अपर आईएनडीआईए यानि इंडिया गठबंधन बनाया गया है।रोज नए कीर्तिमान बनाने में रूचि रखने वाली भाजपा और भाजपा सरकार ने संसद के शीत सत्र में जहाँ 146 सांसदों के निलंबन का कीर्तिमान रचा वहीं देश के आपराधिक कानून में बदलाव लाने वाले तीन और दूरसंचार क्षेत्र में बदलाव लाने वाले अहम विधेयक समेत 18 विधेयक भी पारित किए गए। इन नए कानूनों से देश की जनता के जीवन में कितना बदलाव आएगा या नहीं आएगा ये बाद में पता चलेगा किन्तु अब ये तय हो गया है कि 18 वीं लोकसभा में भी यदि विपक्ष ने अपनी शक्ति न बढ़ाई तो भविष्य में भी संसद ध्वनिमत से चलेगी और सत्तारूढ़ दल जो चाहेंगे सो होकर रहेगा। ये लोकतंत्र के स्वास्थ्य के लिए अच्छा होगा या बुरा कहना कठिन है किन्तु इसके लिए जिम्मेदार केवल और केवल विपक्ष ही होगा।देश के लोकतंत्र को ठिठुरन से बचने के लिए पहली सीधी है देश को अंधश्रृद्धा से मुक्ति दिलाना। देश की राजनीति में श्रद्धा तो होना चाहिए किन्तु भक्तिभाव नहीं। अंधश्रद्धा और अंधभक्ति लोकतंत्र के लिए पहले भी जहर साबित हुई है और आगे भी जहर ही प्रमाणित होगी ,इसलिए ये देश की जनता पर भी निर्भर है कि वो कैसा लोकतंत्र और कैसी संसद चाहती है ? समय बहुत कम है और काम बहुत ज्यादा। इसलिए जिसे जो करना है वो द्रुतगति से करे। हम अपना काम अपनी गति से कर रहे है। आपकी आप जानें।
राकेश अचल जी ,वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनैतिक विश्लेषक

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