निर्भया पर एक देश मणिपुर पर एक क्यों नहीं ?

निर्भया पर एक देश मणिपुर पर एक क्यों नहीं ?

सरकार की तरह मै भी हूँ । जनता से जुड़े मुद्दों को तिलांजलि देकर इन दिनों केवल और केवल मणिपुर पर लिख रहा हूं। बहुत से लोग हैं जो मणिपुर को अकेला नहीं छोड़ना चाहते सरकार की तरह। लेकिन हैरानी की बात ये है कि देश में जिस तरह की एकजुटता और शक्तिप्रदर्शन निर्भया के मामले में किया था ,उसी तरह की एकजुटता और शक्ति का प्रदर्शन मणिपुर में हो रही अमानुषिकता के खिलाफ क्यों नहीं नजर आ रहा ?मणिपुर को जलते ,धधकते और खून में नहाते तीन महीने होने को आये हैं ,किन्तु दुर्भाग्य है कि देश की जनता इस मुद्दे पर केंद्र सरकार और राज्य सरकार पर कोई दबाब नहीं बना पायी है । मणिपुर का मुद्दा देश की संसद के अलावा योरोप और इंग्लैंड की संसद में तक गूँज चुका है किन्तु देश की जनता में उबाल नहीं आ रहा । एक से एक लोमहर्षक वीडियो वायरल हो रहे हैं किन्तु इन जघन्य वारदातों के खिलाफ जनता आंदोलित नहीं हो रही।जनता के गर्म खून में इस ठंडक के लिए आखिर कौन जिम्मेदार है ?
                                          देश की संसद में मणिपुर के मुद्दे पर किस प्रावधान के तहत बहस हो इसी विवाद में तीन दिन गुजर गए। देश के प्रधानमंत्री ने जो बात संसद के भीतर कहना चाहिए थी उसे मात्र 36 सेकेण्ड में सदन के दरवाजे पर कैमरों के सामने खड़े होकर कहकर अपनी ड्यूटी पूरी कर ली है। जबकि ये सदन की अवमानना भी है और देश की अनदेखी भी। किन्तु मुश्किल ये है कि आज देश हर मुद्दे पर बिखरा हुआ है। देश में सियासत ने नफरत के साथ ख्यालों के मामले में भी जनता को विभाजित करने में कामयाबी हासिल कर ली है। सरकार यदि मणिपुर के मामले में संवेदनशील और गंभीर है तो उसे इस बात में क्या दिक्क्त है कि बहस धारा 176 के तहत हो या 256 के तहत। सरकार मणिपुर के मामले में इस बात को प्रतिष्ठा का प्रश्न क्यों बना रही है कि माननीय प्रधानमंत्री जी के बजाय गृहमंत्री जी इस मामले में सदन में बयान देंगे ?सरकार के दिल में इस समय न जनता के लिए जगह है और न विपक्ष के लिए । सरकार निरंकुशता की सभी हदें पार कर चुकी है। इससे ज्यादा दुर्भाग्यपूर्ण क्या होगा कि संवेदनशील सरकार के प्रधानमंत्री मणिपुर के मुद्दे पर एक सर्वदलीय बैठक बुलाकर सभी को वस्तुस्थिति से अवगत कराकर समस्या के निदान की और एक कदम नहीं बढ़ा सके । प्रधानमंत्री यदि इस मुद्दे पर विपक्ष के साथ बैठ लेते या मणिपुर में वस्तुस्थिति का पता लगाने के लिए एक सर्वदलीय दल मणिपुर भेज देते तो सरकार की नाक नीची नहीं हो जाती। अतीत में ऐसे जटिल मुद्दों पर सरकारें ऐसा करतीं आयीं है। और जब आप ‘ सबका साथ ,सबका विकास ‘ का नारा देते हैं तब तो ये काम बहुत पहले हो जाना चाहिए था। दुर्भाग्य ये है कि हमारी लोकप्रिय और मजबूत सरकार ने सियासत में सौजन्यता के स्थान पर अदावत को ज्यादा सींचा है।
                                       सब जानते हैं कि मणिपुर में वो ही होगा जो सरकार चाहती है । सरकार मणिपुर को कांग्रेस विहीन करने के साथ ही ईसाइयत विहीन भी करना चाहती है। यदि ऐसा नहीं चाहती तो मणिपुर में सैकड़ों गिरजाघर आग के हवाले नहीं किये जा सकते थे। मेरी आज भी दृढ मान्यता है कि सरकार सर्वशक्तिमान होती है और उसकी मर्जी के बिना पत्ता भी नहीं खड़क सकता फिर चाहे मणिपुर हो या मध्यप्रदेश। माननीय प्रधानमंत्री और उनकी सरकार का मणिपुर को लेकर क्या रुख है इसका पता प्रदानमंत्री के ‘ क्षणिका सम्बोधन ‘ से ही लगाया जा सकता है। उन्हें बात करना थी केवल मणिपुर पर लेकिन उन्होंने मणिपुर के साथ कांग्रेस शासित राजस्थान और छत्तीसगढ़ को भी लपेट लिया। उन्होंने आदिवासियों के सिर पर पेशाब करने वाले भाजपा शासित मध्यप्रदेश को मुआफ़ी दे दी ,क्योंकि वहां की सरकार ने भाजपा की चाल,चरित्र और चेहरे के अनुरूप पीडित के चरण पखार लिए।भाजपा और उसकी डबल इंजन की मणिपुर सरकार यदि राज्य में हो रही अमानुषिक,अकल्पनीय और दिल दहलाने वाली वारदातों के प्रति मध्यप्रदेश की सरकार की तरह संवेदनशील है तो वहां के मुख्यमंत्री वीरेन भाई साहब घर से निकलकर पीडितों के बीच क्यों नहीं पहुँच रहे ? उन्हें क्यों दर लगता है पीड़ितों के बीच पहुँचने में ?क्या उन्हें सत्ता की शक्ति पर यकीन नहीं है ? मम्मी या कोई ये नहीं कहता कि मणिपुर के मामले में राज्य और केंद्र की सरकार हाथ पर हाथ रखे बैठी है। निश्चित होई सरकार कुछ न कुछ कर रही है ,लेकिन जो कर रही है उससे स्थितियों में सुधर आने के बजाय वे और बिगड़ रहीं हैं। जाहिर है कि सरकार के प्रयासों में खोट है । या तो उसके पास आग बुझाने के लिए पानी नहीं है या फिर गलती से या जानबूझकर सरकार पानी की जगह पेट्रोल का इस्तेमाल कर रही है।मणिपुर का भूगोल और सामाजिक तानाबाना ऐसा है कि उसे दिल्ली की नजर से नहीं समझा जा सकता। मणिपुर की आबादी देश के पांच महानगरों की आबादी से भी कम है लेकिन समस्या किसी भी महानगर की समस्या से ज्यादा विकराल। केंद्र सरकार मणिपुर की समस्या को राज्य का विषय मानकर काम करती दिखाई दे रही है ,क्योंकि क़ानून और व्यवस्था राज्य का विषय है । लेकिन जब राज्य नाकाम हो जाता है तब या तो राज्य की सरकार को बर्खास्त कर केंद्र को सीधे हस्तक्षेप करना होता है या फिर सबको साथ लेकर समस्या का निदान करना होता है। ऐसे विशेष चरित्र के राज्यों में हिंदुत्व और ध्रुवीकरण के प्रयोग नहीं किये जाते । दुर्भाग्य से मणिपुर की डबल इंजन की सरकार यही सब कर रही है।
                                       आज स्थिति ये है कि मणिपुर में न हिंदुत्व संकट में है और न ईसाइयत। वहां संकट में है मनुष्यता। मणिपुर की हिंसा की जो तवस्वीरें छन-छन कर बाहर आ रहीं वे हमें आदिमयुग की याद दिला रहीं है। ऐसी ही तस्वीरें जब अफगानिस्तान की तालिबानी हुकूमत की रहते काबुल से आतीं थीं तो हम सब सिहर उठते थे,किन्तु मणिपुर की तस्वीरों को हम खामोशी की साथ देख रहे हैं। देश में क्रान्ति का संवाहक छात्र वर्ग,युवा वर्ग खामोश है क्योंकि उसके पास कोई जयप्रकाश नारायण नहीं है।सत्ता प्रतिष्टान के खिलाफ खड़े होने का साहस किसी की पास बचा ही नहीं ह। यूपीए से इंडिया हुआ विपक्ष भी सरकार की ईंट से ईंट बजाने की हैसियत नहीं बना पाया है। ये मसला अब संसद में बहस मात्र से हल होने वाला नहीं है । इसे सुलझाने की लिए पूरे देश की एकजुटता की आवश्यकता है। यदि देश अपनी सरकार पर दबाब नहीं बना पाया तो आप मानकर चलिए कि मणिपुर भारत की नक्शे का एक अग्निदग्ध हिस्सा ही बना रहेगा।आपको याद दिला दूँ कि मणिपुर की बीमारी आज की नहीं है। भाजपा के जन्म के पहले से ये बीमारी है ,लेकिन भाजपा ने इसे नासूर में तब्दील कर दिया है।आज से 43 साल पहले की सरकार ने 1980 में मणिपुर को अशांत क्षेत्र घोषित कर यहां पर ऑर्म्ड फोर्स स्पेशल पॉवर्स एक्ट लगा दिया था। इसके बाद भी समस्या शांत नहीं हुई। टकराव बढ़ता चला गया। कुकी औऱ नागा समुदाय में अपने-अपने क्षेत्र का दावा करने के कारण टकराव बढ़ गय। राज्य सरकार और केंद्र सरकार लगातर राज्य की शांति का प्रयास करते रहे। मणिपुर को मुख्यधारा में शामिल करने के लिए 2008 से समझौते पर समझौते हो रहे हैं लेकिन मणिपुर की दशा और दिशा बदल नहीं रही है। 2008 में सरकार और विद्रोही गुटों के बीच एक समझौता हुआ. यहीं से सस्पेंशन ऑफ आपरेशन की शुरुआत मानी जाती है। 22 अगस्त 2008 को ये समझौता हुआ। मणिपुर में करीब 30 विद्रोही गुटों में से 25 गुटों ने सरकार के समझौते पर हस्ताक्षर किए। ये समझौता राज्य सरकार , केंद्र सरकार और विद्रोही गुटों के बीच हुआ था।हैरानी की बात ये है कि आज की डबल इंजन कोई सरकार भी 2008 में हुए समझौते से बंधी है लेकिन समस्या का निदान नहीं हो रहा है। सरकार ने इस समझौते से हटकर विद्रोही गुटों से कथित रूप से जो समझौते किये हैं वे ही इस समस्या कोई जड़ हैं। सरकार को इन सबके बारे में देश को बताना चाहिए। केंद्र सरकार मणिपुर को जम्मू-कश्मीर जैसा समझने की भूल कर गयी और इसका नतीजा पूरे मणिपुर को ही नहीं बल्कि पूरे देश को भुगतना पड़ रहा है । पुरी दुनिया में मणिपुर की हिंसा और वहां हो रहे सामाजिक,धार्मिक उन्माद ने भारत की बदनामी पूरी दुनिया में कर दी है। सरकार जनता के दबाब के बिना इस मामले में सच उगलने वाली नहीं है क्योंकि सरकार शुरू से जिस झूठ को बोलती आ रही है उससे पीछे हटना भी आसान काम नहीं है। मणिपुर ‘ हप्पा’ नहीं है की जिसे आसानी से हजम किया जा सके । मणिपुर का चरित्र जम्मू-कश्मीर के चरित्र से एकदम अलग है ,इसलिए मणिपुर के मसले को एक अलग तरिके से ही हल किया जा सकता है।
राकेश अचल जी ,वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनैतिक विश्लेषक 

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