राजनीतिनामा

‘ संघ ‘ की मांग में ‘ उधार का सिन्दूर ‘

आज के आलेख का शीर्षक पढ़कर आप मुझे संघ यानि आरएसस का विरोधी न समझ लें । मै संघ से असहमत हो सकता हूँ लेकिन उसका धुर विरोधी नहीं। दुनिया में मेरे अनेक संघी मित्र हैं और मित्र ही नहीं, अभिन्न मित्र हैं ,क्योंकि वे गुरु गोलवलकर की तरह जखड्डी नहीं बल्कि रज्जू भैया की तरह उदार हृदय हैं। संघ यानि राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ अगले साल 25 सितंबर को अपने 100 वर्ष पूरे कर लेगा ,लेकिन इस शताब्दी को छूते-छूते संघ अनेक मामलों में सम्पन्न होते-होते विपन्न हो गया है। यहां तक कि अब उसके पास अपने नारे तक नहीं बचे हैं। संघ ने मजबूरन अपनी मांग में उधार का सिन्दूर भरना शुरू कर दिया है।
संघ आजकल अपने नए नारे ‘ बंटोगे तो कटोगे ‘ को लेकर सुर्ख़ियों में है ,लेकिन ये नारा संघ की अपनी खोज नहीं है । इस नारे के जनक गैर-संघी हिंदूवादी नेता और उत्तरप्रदेश के उत्तरदायी मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ हैं। योगी जी ने ये नारा आम चुनाव के बाद 2024 में भाजपा की अप्रत्याशित पराजय के बाद गढ़ा और 4 जून 2024 के बाद देश में हुए अनेक राज्यों के विधानसभा चुनावों में इसका इस्तेमाल किया। योगी जी का नारा कट्टर हिन्दुओं के सिर चढ़कर बोलता दिखा तो धीरे से संघ ने इस नारे को सिन्दूर समझकर अपनी मांग में भर लिया। संघ के बड़े नेता दत्तात्रय होसबोले ने सबसे पहले इस नारे का समर्थन किया और आज न केवल संघ बल्कि पूरी भाजपा इस नारे के सहारे देश में साम्प्रदायिकता की नई इबारत लिखने में जुटी हुई है।
‘ बंटोगे तो कटोगे ‘ का नारा सिहरन पैदा करने वाला है। इस नारे से सबसे ज्यादा सिहरन उत्तर प्रदेश में देखी जा रही है । उत्तर प्रदेश में ही भाजपा को कांग्रेस और समाजवादी पार्टी की युति की वजह से लोकसभा में धूल चाटना पड़ी थी। संघ और योगी के इस नारे के जबाब में कांग्रेस ने तो कोई नारा नहीं गढ़ा किन्तु समाजवादी पार्टी ने एक नारा जरूर गढ़ लिया कि -‘जुड़ोगे तो जीतोगे ‘ इस नारे से सिहरन नहीं होती। ये नारा उम्मीदों का नारा लगता है। समाजवादी पार्टी ने इस नारे से पहले पीडीए का फार्मूला इस्तेमाल किया था और सपा का नया नारा भी इसी फार्मूले का परिष्कृत संस्करण है। अब इसी महीने ऊपर में होने वाले विधानसभा के उप चुनावों में इन दोनों नारों का परीक्षण भी हो जाएगा। मेरे हिसाब से ये नारे नहीं बल्कि सियासी मिसाइलें हैं। देखना है कि कौन सी मिसाइल ,कितनी मारक साबित होती है ?
बात संघ की मांग में उधार के सिन्दूर की है । संघ की सम्पन्नता और विपन्नता को जानने के लिए आपको मेरे साथ संघ के 99 साला सफर का विंहगावलोकन करना होगा। आप सभी जानते हैं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना 27 सितंबर सन् 1925 में विजयादशमी के दिन डॉ॰ केशव हेडगेवार द्वारा की गयी थी।ये वो दौर था जब देश दासता कि बेड़ियों में जकड़ा था और इससे मुक्ति के लिए छटपटा रहा था। संघ का मकसद प्रारंभिक प्रोत्साहन हिंदू अनुशासन के माध्यम से चरित्र प्रशिक्षण प्रदान करना था और हिन्दू राष्ट्र बनाने के लिए हिंदू समुदाय को एकजुट करना था।जबकि उसी दौर में महात्मा मोहनदास करमचंद गांधी उस समय के पीडीए के फार्मूले पर पूरे देश को एकजुट कर नया भारत बनाने के लिए प्रयास कर रहे थे। जीत गांधी की हुई । हेडगेवार का सपना पूरा नहीं हो सका। भारत आजाद हुआ तो पाकिस्तान की तरह धार्मिक राष्ट्र नहीं बना बल्कि एक ऐसा प्रभुता सम्पन्न देश बना जिसमें सभी धर्मों के लिए समान अवसर और सम्मान हासिल था। संघ के संस्थापक डॉ केशव बलिराम हेडगेवार लगातार 15 साल तक अपने उद्देश्य की पूर्ती के लिए कोशिश करते रहे और हिन्दू राष्ट्र का अधूरा सपना लिए ही चल बसे। उनके बाद माधवराव सदाशिवराव गोलवलकर ने संघ कि कमान सम्हाली।गुरु गोलवलकर के नाम से लोकप्रिय माधवराव सदा शिवराव ने संघ को लगातार 33 साल तक अपने खून-पसीने से सींचा और वे 1940 से 1973 तक संघ के सर्व सम्मत मुखिया रहे। ये दौर आजादी के बाद नेहरू,शास्त्री और इंदिरा गाँधी का दौर था। इन तीनों प्रधानमंत्रियों के कार्यकाल में संघ का प्रसार खूब हुआ । पाबंदियां भी लगीं रहीं किन्तु संघ का सपना पूरा नहीं हुआ। अनेक सपने ऐसे होते हैं जो आसानी से पूरे नहीं होते । गुरु गोलवलकर भी डॉ हेडगेवार की तरह भारत को हिन्दू राष्ट्र बनाने में नाकाम रहे और चल बसे। गुरु गोलवलकर के बाद एक और माधवराव आये उनका पूरा नाम माधवराव दत्तात्रय देवरस था।देवरस का संघ भी ठीक वैसा ही संघ था जैसा हेडगेवार साहब चाहते थे । देवरस साहब ने लगातार 21 साल १९७३ से 1994 तक देश को हिन्दू राष्ट्र बनाने के अधूरे सपने को पूरा करने में अपना पसीना बहाया,लेकिन वे भी कामयाब नहीं हुये । हाँ देवरस के काल में संघ को तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गाँधी द्वारा देश पर थोपे गए आपातकाल का सामना करना पड़ा । ये समय संघ की सक्रियता का एक तरह से नया युग था । इस 19 महीने के काले समय में संघ के स्वयंम सेवकों ने भूमिगत रहकर देश में हिंदुत्व का रंग भरने कि भरपूर कोशिश की। संघ को इसका प्रतिफल भी मिला लगभग 50 साल के प्रतीक्षा के बाद 1996 में संघ के प्रचारक माननीय अटल बिहारी बाजपेयी देश के प्रधानमंत्री बने।लेकिन तब तक देवरस काल समाप्त हो चुका था। 1994 में ही देवरस संघ के लिए उपलब्ध नहीं रह पाए । उनकी जगह रज्जु भैया ने संघ की कमान सम्हाल ली थी ,इसलिए सत्ता के शीर्ष तक पहुँचने का सुयश रज्जू भय के खाते में दर्ज हुआ। रज्जू भैया 1994 से 2000 तक संघ के सर्वे-सवा रहे। ये रज्जू भैया की सबसे बड़ी उपलब्धि रही। बावजूद उन्हें अल्पकाल में ही संघ कि कमान छोड़ना पड़ी।संघ के नए प्रमुख 2000 में किसी सुदर्शन बनाये गए। उन्होंने भी ९ साल तक संघ कि खूब सेवा कि ,लेकिन उनके कार्ययकल को यादगार नहीं कहा जा सकता। सुदर्शन जी ने समय रहते अपनी इच्छा से डॉ मोहन भागवत को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। पिछले 14 साल से डॉ मोहन भागवत संघ के अधूरे सपने में रंग भरने कि कोशिश कर रहे हैं। डॉ भागवत जन्मे तो थे पशुओं कि सेवा के लिए लेकिन वेटनरी डाक्टर बनने के बाद उन्होंने पशुओं कि सेवा करने के बजाय संघ कि सेवा को चुना । वे खानदानी संघी है। ऊके पिता भी संघ के प्रचारक थे। इसलिए उनके लिए संघ बहुत सहज प्लेटफार्म था।
                           डॉ मोहन भागवत को संयोग से 2014 में एक ऐसा नेता मिला जो सहोदर न होते हुए भी सहोदर जैसा था । उस नेता का नाम है नरेंद्र दामोदर दास मोदी। दोनों हम उम्र हैं। एक साथ प्रचारक रहे हैं और ये फर्क करना मुश्किल होता है कि वे दो जिस्म एक जान नहीं है। आप मोदी में मोहन को और मोहन को देख सकते हैं । डॉ मोहन भागवत के मौजूदा 14 वर्ष के कार्यकाल में भाजपा तीसरी बार सत्ता में आयी है। लेकिन इस अवधि में भी डॉ हेडगेवार के सपने में रंग भरने में संघ को कामयाबी नहीं मिली । हालाँकि इस काल में संघ के हिस्से में राम जन्म भूमि विवाद का निबटारा,नए राम मंदिर का निर्माण और मंदिर में रामलला कि प्रतिमा कि स्थापना का सुयश दर्ज हो चुका है।
संघ और भाजपा के दो बड़े नेताओं कि ये जोड़ी 2024 के आमचुनाव होते होते बिखरने लगी । मोदी कि भाजपा संघ से बड़ी नजर आने लग। संघ के 98 साल के लम्बे जीवन में पहली बार ‘ अपनी ही बिल्ली ने ‘ म्याऊं ‘ करके दिखाया । भाजपा ने पहली बार ही कहा कि उसे अब संघ कि जरूरत नहीं है। संघ प्रमुख डॉ मोहन भगवत अपमान का ये घूँट भी चुपचाप कड़वी दवा समझकर पी गए। उनका सब्र काम आया या नहीं लेकिन इस दौर में वे देश के सबसे पहले असुरक्षित संघ प्रमुख जरूर बन गये । उन्हें देश कि सरकार से सुरक्षा हासिल करना पड़ी।
डॉ भागवत के मौन का सुफल ये हुआ कि केंद्र सरकार ने संघ की गतिविधियों पर लगी पाबंदी को हटा दिया। संघ के प्रचारक जहाँ-तहाँ स्थापित कर दिए गए। संघ के हजारों स्वयं सेवक डबल इंजिन की सरकारों से हर महीने हजारों रूपये का नेमनूक [ पारश्रमिक ] पा रहे हैं संघ के सौ साल के सफर में संघ के लिए सबसे कठिन दौर अब है । संघ के पास अब कोई चमत्कारी उपकरण नहीं हैं । संघ को गैर संघी मठाधीश योगी आदित्यनाथ के नारे के सहारे आगे का सफर तय करना पड़ रहा है। ये संघ के लिए शुभ है या अशुभ ये राम ही जाने । हम तो इतना जानते हैं कि संघ इस समय भाजपा कि कठपुतली है और उसकी मांग में योगी द्वारा सृजित उधार का सिन्दूर भरा हुआ है। संघ के शतायु होने पर कोटि-कोटि बधाइयाँ । मोहन जू को शुभकामनाएं कि वे संघ के प्रथम सुप्रीमो की ही भांति कम से कम 40 साल तक संघ की सेवा करें।

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@ राकेश अचल
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