देश को आज भी मुंशी प्रेमचंद की दरकार

देश को आज भी मुंशी प्रेमचंद की दरकार

मुंशी प्रेमचांद को उन्नीसवीं सदी के अंत में नहीं बल्कि आज पैदा होना चाहिए था। जब वे पैदा हुए तब तो देश जैसा था ,वैसा था किन्तु आज का भारत कल के भारत से भी ज्यादा बदहाल है। मुंशी जी ने जिस भारत को जिया,और अपने उपन्यासों तथा कहानियों के जरिये दुनिया के सामने रखा उस भारत में और आज के भारत में कोई फर्क नहीं है। मुंशी जी के जमाने में फिरनगी हमसे हमारी जाट पूछते थे और आज आजाद भारत में देश की अठारहवीं संसद में सत्तारूढ़ दल के नेता प्रतिपक्ष के नेता से उसकी जाट पूछ रहे हैं।मुझे लगता है की यदि अनुराग ठाकुर और उनकी जाट वालों ने गलती से भी मुंशी प्रेमचंद को पढ़ लिया होता तो वे देश की संसद में इतना घटिया सवाल नहीं करते। हमारे यहां अकेले मुंशी जी ही नहीं हैं और भी लोग है न जो मनुवादी समाज के खिलाफ खड़े होकर बोलते और लिखते रहे। ‘ जाट न पूछो साधू की,,, तो अनपढ़ ने भी सुना और कंठस्थ किया है।कोई भी संझदार व्यक्ति किसी से उसकी जाट नहीं पूछता लेकिन ठाकुर ब्रांड नेता ये काम करते हैं और बिना शर्माए करते हैं।
बात मुंशी प्रेमचांद की हो रही ह। मुंशी जी को मैंने देखा नही। वे मेरे जन्म से कोई २३ साल पहले ही चलते बने, लेकिन मेरी भी जिद थी की जिस मुंशी प्रेमचंद को हमने बच्पन से पचपन तक पढ़ा है उनसे मिलने उनके गांव लमही जरूर जाऊँगा। और मै सचमुच लमही गया। लमही में मुझे मुंशी जी तो नहीं मिले किन्तु उनकी आत्मिक उपस्थिति से मेरा साक्षात्कार अवश्य हुआ। मुंशी जी की जीवनी और उनके साहित्य के बारे में लिखना मुझे आवश्यक नहीं लगता,क्योंकि पढ़ने-लिखने में रूचि रखने वाले देश-दुनिया के तमाम लोग जानते हैं की मुंशी प्रेमचंद का असलीनाम धनपत राय श्रीवास्तव था। वे धनपत राय से मुंशी प्रेमचंद कैसे बने इसकी अलग कहानी है।
मुंशी जी कलम-दवात के जमाने में ३१ जुलाई १८८० को जन्मे थे , मुझे लगता है की यदि मुंशी जी आज के मोबाईल और इंटरनेट के युग में जन्मने होते तो ज्यादा उचित होता। जाहिर है कि मुंशी जी , हिन्दी और उर्दू के सर्वाधिक लोकप्रिय उपन्यासकार, कहानीकार एवं विचारक थे। मुंशी जी ने सेवासदन, प्रेमाश्रम, रंगभूमि, निर्मला, गबन, कर्मभूमि, गोदान आदि लगभग डेढ़ दर्जन उपन्यास लिखे । हिंदी साहित्य का शायद ही कोई ऐसा छात्र होगा जिसने इन उपन्यासों को न पढ़ा हो।
हमारी पीढ़ी का बच्चा-बच्चा उनकी कहानियों में से कुछ ख़ास कहानियों जैसे कफन, पूस की रात, पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, बूढ़ी काकी, दो बैलों की कथा को तो जानता ही है । मुंशी जी ने हालाँकि तीन सौ से अधिक कहानियाँ लिखीं। उनमें से अधिकांश हिन्दी तथा उर्दू दोनों भाषाओं में प्रकाशित हुईं। उन्होंने अपने दौर की सभी प्रमुख उर्दू और हिन्दी पत्रिकाओं जमाना, सरस्वती, माधुरी, मर्यादा, चाँद, सुधा आदि में लिखा।
मुंशी जी केवल लेखक ही होते तो अलग बात थी । वे सम्पादक भी थे और अच्छे सम्पादक थे। उन्होंने हिन्दी समाचार पत्र जागरण तथा साहित्यिक पत्रिका हंस का संपादन और प्रकाशन भी किया। इसके लिए उन्होंने सरस्वती प्रेस खरीदा जो बाद में घाटे में रहा और बन्द करना पड़ा। इसकी भी एक रोचक कहानी है। मुंशी जी दुसरे लेखकों की तरह फिल्मों की पटकथा लिखने मुंबई भी गए। उन्होंने मुंबई में लगभग तीन वर्ष तक संघर्ष किया और वापस अपने देश लौट आये। जीवन के अंतिम दिनों तक वे साहित्य सृजन में लगे रहे। महाजनी सभ्यता उनका अंतिम निबन्ध, साहित्य का उद्देश्य अन्तिम व्याख्यान, कफन अन्तिम कहानी, गोदान अन्तिम पूर्ण उपन्यास तथा मंगलसूत्र अन्तिम अपूर्ण उपन्यास माना जाता है।
मुझे लगता है की मुंशी जी कि समकालीन जितने भी लेखक हुए उनमें मुंशी प्रेमचंद को जो लोक प्रतिष्ठा मिली ,वो कम ही लोग हासिल कर पाए। मुंशी जो कहानी लिखें या उपन्यास उनके पात्र आपके आसपास कि जाने-पहच्चने होते थे। मुंशी जी की भाषा सहज,सपाट और सपरवाह होती थी। वे सीधे दिल में उत्तर जाते थे अपने पत्रों को लेकर। मैंने मुंशी जी कि गांव में उनके पौत्र द्वारा बनाये गए एक संग्रहालय में मुंशी जी की किताबों और उनके दुवारा आस्तेमाल किये गए रेडिओ ,लालटेन,कलमों को छू-छूकर देखा। मेरे रोमांच की आप कल्पना नहीं कर सकते। मुझे लगता है की यदि आज मुंशी जी होते तो वे तमाम भाग्य विधाताओं की बोलती बंद कर देते। वे किसी सीबीआई और ईडी से न डरते। जमकर लिखते।
मुंशी जी की सबसे बड़ी उपलब्धि यही है की वे भारतीय जन मानस में आज 88 साल बाद भी विराजमान हैं।उन्हें पिछले सौ साल में कोई आलोचक ,कोई कहानीकार और उपन्यासकार न ख़ारिज कर पाया और न उनकी जगह ले पाया। मुंशी जी आज भी गांव-कस्बे कि लेखकों कि भीतर मौजूद है। वे कहीं कम तो कहीं ज्यादा प्रकट होते रहते हैं । अमरत्व इसी का नाम है।
@ राकेश अचल

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