आखिर आग से क्यों खेलते हैं राज्यपाल

आखिर आग से क्यों खेलते हैं राज्यपाल

‘ यथा राजा,तथा प्रजा ‘ की कहावत अब पुरानी हो गयी है । नई कहावत है ‘ यथा राजा ,तथा राज्यपाल ‘ । हमेशा से आग से खेलने के शौकीन रहे हैं। माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब के राजयपाल बनवारी लाल पुरोहित के आचरण के मामले में तो ये बात कह ही दी। सुप्रीम कोर्ट ने विधानसभा द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी नहीं देने पर पंजाब के राज्यपाल पर नाखुशी जाहिर की और कहा, “आप आग से खेल रहे है। हमारा देश स्थापित परंपराओं पर चल रहा है और उनका पालन किया जाना चाहिए। पंजाब सरकार और राज्यपाल के बीच गतिरोध को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि पंजाब में जो हो रहा है, हम उससे खुश नहीं हैं, यह गंभीर चिंता का विषय है. सुप्रीम कोर्ट में इस मुद्दे पर सुनवाई जारी है।पंजाब में आम आदमी पार्टी की सरकार है और इन दिनों आम आदमी पार्टी और केंद्र में सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा के बीच छत्तीस का आंकड़ा है । आम आदमी पार्टी की दिल्ली सरकार के दो मंत्री और एक सांसद भ्र्ष्टाचार के आरोपों के चलते जेल में हैं और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केरीवाल को भी जेल भेजने की पूरी तैयारी हो चुकी है। पंजाब में राज्यपाल बनवारी लाल पुरोहित हैं। वे पंजाब में वो सब कर रहे हैं जो किसी समय पश्चिम बंगाल में तत्कालीन राज्यपाल जगदीश धनकड़ किया करते थे। राज्यपाल का काम केंद्र के घोषित-अघोषित आदेशों का पालन करते हुएराज्य सरकारों की नाक में दम किये रहना होता है। पहले भी होता था और आज भी होता है। इसलिए पंजाब के राज्यपाल पुरोहित जी का कोई दोष नहीं है।पंजाब सरकार और राज्यपाल के बीच इन दिनों सीधे टकराव की स्थिति है । राज्यपाल जी पंजाब विधानसभा द्वारा पारित तमाम प्रस्तावों पर दस्तखत नहीं कर रह। वे उन्हें विधानसभा को वापस भी नहीं भेज रह। ऐसे में पंजाब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाया। और सुप्रीमकोर्ट ने जो कहा वो न सिर्फ पंजाब के राज्यपाल के आचरण के लिए एक गंभीर टिप्पणी है बल्कि देश भर के तमाम राज्यपालो के लिए भी एक उल्हाना है।सुप्रीम कोर्ट ने बहस के दौरान साफ़-साफ़ कहा कि- क्या राज्यपाल को इस बात का जरा भी अंदेशा है कि वो आग से खेल रहे हैं?
सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि अगर राज्यपाल को लगता भी है कि बिल गलत तरीके से पास हुआ है तो उसे विधानसभा अध्यक्ष को वापस भेजना चाहिए। कोर्ट ने सवाल किया कि अगर राज्यपाल इसी तरीके से बिल को गैरकानूनी ठहराते रहे तो क्या देश संसदीय लोकतंत्र बचेगा?हमेशा कि तरह सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि राज्यपाल राज्य का संवैधानिक मुखिया होता है, लेकिन पंजाब की स्थिति को देखकर लगता है कि सरकार और उनके बीच बड़ा मतभेद है, जो लोकतंत्र के लिए अच्छा नहीं है.
अब कोर्ट में चूंकि राज्यपाल खुद तो थे नहीं इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने राज्यपाल के वकील से पूछा कि आप किसी बिल को अनिश्चित काल के लिए नहीं रोक रख सकते हैं? पंजाब सरकार के वकील सिंघवी ने पंजाब सरकार की तरफ से कहा कि बिल रोकने के बहाने राज्यपाल बदला ले रहे हैं.सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने पूरे मामले पर नाराजगी जाहिर करते हुए कहा कि आखिर संविधान में कहा लिखा है कि राज्यपाल स्पीकर द्वारा बुलाए गए विधानसभा सत्र को अवैध करार दे सकते हैं.
उन्होंने कहा कि मेरे सामने राज्यपाल के लिखे दो पत्र हैं, जिसमें उन्होंने सरकार को कहा कि चूंकि विधानसभा का सत्र ही वैध तो वो बिल पर अपनी मंजूरी नहीं दे सकते हैं। राज्यपाल ने ये कहा कि वो इस विवाद पर कानूनी सलाह के रहे हैं, हमें कानून के मुताबिक ही चलना होगा.संतोष की बात ये है कि सुनवाई के दौरान केंद्र सरकार की तरफ से कहा गया कि राज्यपाल का पत्र आखिरी फैसला नहीं हो सकता है. केंद्र सरकार इस विवाद को सुलझाने के लिए रास्ता निकाल रही है। लेकिन केंद्र सरकार कैसे रास्ता निकाल रही है ये सभी को साफ़ दिखाई दे रहा है।
                                              आपको याद होगा कि कांग्रेस के शासनकाल में राज्यपाल का काम अजय सरकारों को बर्खास्त करने के लिए तब कि सरकार कि मंशा के हिसाब से रिपोर्ट भेजना होता था । भाजपा शासन में राज्यपाल का काम राज्य सरकार से सीधे भिड़ना और उसके कामकाज में बाधा डालना होता है। जो राज्यपाल इस कसौटी पर खरे उतरते हैं वे पदोन्नत होकर और बड़े ओहदे तक पहुँच जाते हैं। जो खरे नहीं उतरते उन्हें घर बैठा दिया जाता है। उदाहरण के लिए पंजाब के ही पूर्व राज्यपाल प्रो कप्तान सिंह सोलंकी। पंजाब की ही तरह दिल्ली के तत्कालीन अनिल बैजल की भूमिका भी इस देश ने देखी है। अब दिल्ली के उप राज्यपाल विनय कुमार सक्सेना हैं।आपको याद दिला दूँ कि पंजाब के राज्यपाल से पहले सुप्रीम कोर्ट दिल्ली के उप राज्यपाल के कान भी खींच चुकी है। जब मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उप राज्यपाल के बीच का विवाद सुप्रीम कोर्ट पहुंचा तो सुप्रीम कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि दिल्ली के उपराज्यपाल के पास स्वतंत्र फ़ैसले लेने का अधिकार नहीं है और उन्हें मंत्रिपरिषद के सहयोग और सलाह पर ही कार्य करना चाहिए। मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ ने कहा कि उपराज्यपाल की भूमिका अवरोधक की नहीं होनी चाहिए। कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा कि मंत्रिपरिषद के लिए सभी निर्णय उपराज्यपाल को बताए जाने चाहिए, लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि उनकी सहमति ज़रूरी है। अदालत के मुताबिक, ”निरंकुशता और अराजकता नहीं होनी चाहिए। ”सवाल ये है कि राजनीतिक अदावतों के चलते राज्यपाल पद का इस्तेमाल आखिर कब तक किया जाएगा ? सवाल ये भी है कि बनवारी लाल पुरोहित जैसे विज्ञ राजनीतिज्ञ इस पद पर बैठकर कब तक केंद्र कि कठपुतली बनते रहेंगे।? कोई आठवीं पास व्यक्ति राज्यपाल के पद पर बैठकर कठपुतली बने तो समझ में आता है किन्तु जब खूब पढ़ा-लिखा पुरोहित कि क्लास ले नहीं सकता ही कठपुतली बनने को राजी हो जाये तो कोई क्या कर सकता है ? सर्वोच्च न्यायालय कोई दिन-प्रतिदिन तो राज्यपाल की क्लास ले नहीं सकता। वैसे लोकतंत्र में राज्यपाल के पद की कितनी जरूरत बची है ,इस पर भी बहस शुरू होना चाहिए। क्योंकि जो काम पुरोहित जी पंजाब में कर रहे हैं वही काम तमिलनाडु में राज्यपाल आरएन रवि कर रहे हैं। तमिलनाडु की सरकार भी अपने राज्यपाल के आचरण के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में खड़ी है। यहां भी कोर्ट अपनी नाराजगी जाहिर कर चुका है।तमिलनाडु में भी भाजपा की सरकार नहीं है ,इसलिए राज्य सरकार को नाच नाचने का काम राज्यपाल के जिम्मे है। राज्यपाल द्वारा विधेयक पास करने में देरी के खिलाफ तमिलनाडु सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की हुई है। अब इस याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र सरकार को नोटिस जारी किया है। इस नोटिस में सुप्रीम कोर्ट ने अटॉर्नी जनरल और सॉलिसिटर जनरल को मामले की सुनवाई में शामिल होने को कहा है। सुप्रीम कोर्ट ने ये भी कहा कि तमिलनाडु सरकार ने याचिका में जो मुद्दा उठाया है, वह बेहद चिंताजनक है।
राकेश अचल जी 
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