प्रभात झा का असमय जाना खल गया। प्रभात झा से प्रभात जी होने का एक लंबा सफर है और संयोग से मैं इस सफर का हमराही भी हूँ और चश्मदीद भी। प्रभात मेरी दृष्टि में सचमुच गुदड़ी के लाल थे। प्रभात 1980 में ग्वालियर में उस समय आये थे जब भाजपा का जन्म हुआ ही था । वे बिहार में दरभंगा जिले के हरिहरपुर गांव के रहने वाले थे । उनके पिता एक सामान्य परिवार के मुखिया थे। ग्वालियर में प्रभात का शैक्षणिक ,सामाजिक और राजनीयतिक जीवन जब शुरू हो रहा था तब मेरी पत्रकारिता की गाड़ी चल पड़ी थी। प्रभात को दो जून भोजन की व्यवस्था भाजपा ग्वालियर के सम्भवत:पहले अध्यक्ष रूप किशोर सिंघल के यहां से करा दी गयी थी।
प्रभात में बचपन से भी श्रमजीवी होने के लक्षण थे । वे भाजपा की महाराज बाड़ा पर होने वाली आम सभाओं केलिए फर्श बिछवाने से लेकर नेताओं के आने तक मंच पर अकेले भाषण देने का काम बाखूबी करने लगे थे। भाजपा का कार्यालय मुख्रजीभवन बना तो वे कार्यालय में आ गये । यहीं एक छोटे से कक्ष में प्रभात झा ने उगना शुरू किया। वे परिश्रमी थे,जिद्दी थे और मिलनसार भी ,इसीलिए स्थानीय भाजपा नेताओं में अल्प समय में ही लोकप्रिय हो गए। उन्हें पितृवत संरक्षण दिया तत्कालीन भाजपा नेता भाऊ साहब पोतनीस ने। पोतनीस जी ग्वालियर के महापौर भी रहे। उन्होंने विधानसभा का चुनाव भी लड़ा और प्रभात झा उनके लिए अविराम काम करते रहे।
लिखने-पढ़ने में प्रभात की अभिरुचियों को देखते हुए संघ ने उन्हें अपने मुखपत्र दैनिक स्वदेश में बुला लिया । वे अब दोहरी भूमिका में थे । एक पत्रकार के रूप में भी और भाजपा के निष्ठावान कार्यकर्ता के रूप में भी। हम दोनों हमउम्र थे और सत्ताप्रतिष्ठान के प्रति मुखर रहने वाले भी इसलिए हमारी निकटता मित्रता में कब तब्दीलहो गयी ,हमें पता ही नहीं चला।मुझसे दो साल बड़े प्रभात ने मुझे कभी मेरे नाम से नहीं बुलाया । मै उनके लिए अचल ही बना रहा। प्रभात के जीवन का वो फकीराना जीवन था । सुबह का नाश्ता कहाँ होगा ,दोपहर का भोजन कहाँ और रात्रि का भोजन कहाँ प्रभात खुद नहीं जानते थे। हमारे यहां एक कहावत है कि – जहाँ मिली दो ,वहीं गए सो ‘ ये कहावत उन दिनों प्रभात झा पर पूरी तरह लागू होती थी।
पार्टी के लिए वे निशियाम काम करते थे, पार्टी कार्यकर्ताओं की मदद के लिए वे किसी भी समय ,किसी भी अधिकारी या नेता के घर जा धमकते थे। उन्हें किसी की भी मदद करने में कोई संकोच नहीं था ,ये वो दिन थे जब प्रभात पैदल राजनीति और पत्रकारिता दोनों करते थे । बहुत दिनों बाद उनके पास जमाने की सबसे लोकप्रिय लेकिन सस्ती मानी जाने वाली मोपेड लूना आयी। उसमें पेट्रोल कब ,कहां खत्म हो जाये ये कोई नहीं जानता था। जहाँ पेट्रोल खत्म वहीं लूना को खड़ा कर प्रभात किसी और के साथ लड़कर निकल जाते थे। कोई न कोई शुभचिंतक बाद में लूना में पेट्रोल डलवाकर मुखर्जी भवन के नीचे टिका आता था। प्रभात कुछ ही वर्षों में शहर के लिए एक चिर-परिचित नाम बन गए थे।
प्रभात अपने पिता से मिलने जब भी मुंबई या बिहार जाते तो मेरे लिए कुछ न कुछ उपहार जरूर लाते थे। उनके यहां रेडीमेड वस्त्रों का काम भी होता था शायद। इसलिए वे मेरे लिए शर्ट अवश्य लाते थे। प्रभात को गरीबी का अहसास ही नहीं अनुभव भी था इसीलिए वे गरीबों के प्रति हमेशा उदार रहते थे। वे जिसके खिलाफ खड़े होते तो पीछे नहीं हटे और जिसके साथ खड़े होते तो कभी साथ नहीं छोड़ते। उनके ये ही गुण उनके भविष्य की आधारशिला बने। भाजपा के तबके शीर्ष नेता कुशाभाऊ ठाकरे के लिए प्रभात झा सबसे भरोसे के कार्यकर्ता थे। उनका यही विश्वास प्रभात को ग्वालियर से भोपाल ले गया ।
प्रभात को ग्वालियर ने पहचान दी ,परिवार दिया ,बच्चे दिए और प्यार दिया । वे पोतनीस का बड़ा के स्थानीय निवासी बन गए ,लेकिन उन्होंने कभी अपने परिवार को कभी अपनी सीमाओं से बाहर नहीं निकलने दिया। वे जब पार्टी के कार्यालय सचिव बनकर भोपाल आये तो मेरे भोपाल प्रवास का आश्रय उनका कार्यालय का कमरा ही होता था। वे हर समय हड़बड़ी में रहते थे। प्रेस से पार्टी के रिश्ते बनाने में प्रभात ने जो मेहनत की वैसी मेहनत मेरी नजर में अभी तक भाजपा का कोई मीडिया प्रमुख नहीं कर पाया। रूठों को मानाने में उन्हें महारत हासिल थी। मेरा उनसे अनेक अवसरों पर मतभेद भी हुआ लेकिन इस मतभेद ने खाई का रूप कभी नहीं लिया । हमारी उनकी दूरियां उनके राज्य सभा जाने के बाद बढ़ीं।
राज्य सभा सदस्य प्रभात झा और मेरे पत्रकार मित्र प्रभात झा में जमीन-आसमान का अंतर आ गया था । वे बाद में भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष भी बने ,लेकिन वे लगातार बदलते गए। वे जिस गरीबी से लड़ते हुए आगे बढ़े थे उसे उन्होंने भुला दिया था। वे सामंतवाद के मुखर विरोधी थे लेकिन राजमाता विजयाराजे सिंधिया के लिए सदैव समर्पित रहते थे ,उन्होंने अपने राजनीतिक जीवन में स्वर्गीय माधवराव सिंधिया के साथ भी सौजन्य निभाया लेकिन उनके बेटे ज्योतिरादित्य सिंधिया के खिलाफ तब तक मोर्चा खोले रखा जब तक कि ज्योतिरादित्य खुद भाजपा में शामिल नहीं हो गए। सिंधिया ने हमेशा दरियादिली दिखाई और वे प्रभात कि पुराने आचरण को भूलकर उनसे मिलते-जुलते रहे।
प्रभात झा का अपना कोई जनाधार नहीं था ,वे पार्टी कि जनाधार पर ही आगे बढ़े। आज के मप्र विधानसभा अध्यक्ष नरेंद्र सिंह तोमर उस जमाने में पार्षद होते थे और प्रभात झा पत्रकार। प्रभात झा ने सियासत में जिस तरह से छलांग लगाईं थी उससे पार्टी कि भीतर और बाहर उनके जितने समर्थक थे उतने ही विरोधी भी। एक समय ऐसा आया की प्रभात झा मेरे पड़ौस में रहने आ गए। वे उन दिनों प्रदेश के अध्यक्ष थे । उनके यहां लगने वाली भीड़ से हमारी कालोनी कि लोग दुखी हो गए। उनके यहां सभी वर्गों के लोग तोहफे लेकर आते थे। प्रभात को कोशिश होती थी की वे सब मेरी नजरों में न आएं ,क्योंकि एक मै ही था जो उनसे किसी भी मुद्दे पर अपनी सहमति या असहमति जता सकता था। वे अक्सर मुझे स्वतंत्रता दिवस पर अपने घर ध्वजारोहण कि लिए बुलाते थे ,लेकिन मेरी उपस्थिति उन्हें बाद में बाधक लगने लगी और वे अपना कार्यालय पार्क होटल से हटा ले गए।
प्रभात झा को जीवन में वो सब कुछ हासिल हुआ जिसके वे तलबगार थे। उनका एक ही सपना अधूरा रह गया और वो ये था कि वे अपने बेटे को अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी कि रूप में स्थापित नहीं कर पाए। उनके बेटे आत्मनिर्भर हैं ,उन्होंने अपनी और से कोशिश भी की किन्तु राजनीति शायद उनके नसीब में नहीं थी। प्रभात और नरेंद्र सिंह तोमर के बीच अपने अपने पुत्रों को राजनीति में स्थापित करने की एक अघोषित प्रतिस्पर्द्धा रही। प्रभात झा अच्छे वक्ता थे,अच्छे लेखक थे ,अच्छे पाठक भी थे। लेकिन एक अराजक जीवन जीने की उनकी कमजोरी ने उन्हें तमाम शारीरिक व्याधियां भी दे दीं और यही व्याधियां उनके लिए घातक साबित हुईं। हाल के कुछ वर्षों में उनके लगातार आग्रह के बावजूद मई उनके घर नहीं गया। उन्होंने जब दिल्ली में घर बनाया तब भी और जब ग्वालियर में घर बनाया तब भी। पता नहीं क्यों मै जिस प्रभात झा का हमराही था वो प्रभात मुझे कहीं नदारत मिला। आज मुझे अपने फैसले पर अफ़सोस भी होता है। ग्वालियर ने प्रभात को जितना दिया वे उसका शतांश भी ग्वालियर को लौटा नहीं पाए। इसका खेद शायद उन्हें भी रहा होगा। अब वे नहीं हैं ,उनकी यादें हैं। मेरी अपने मित्र रहे प्रभात झा को विनम्र श्रृद्धांजलि।
@ राकेश अचल