संगीत का नशा और तानसेन समारोह

संगीत का नशा और तानसेन समारोह

तानसेन समारोह 2022
बात 1972 की है।मै बामुश्किल किशोर वय में प्रवेश कर रहा था। पहला मौका था जब पिता की निगेहबानी से दूर किसी शहर में मुझे रहने का मौका मिला था। गांव से पहली बार किसी शहर में मां और भाई -बहन के साथ शहर में रहना था।शहर भी ऐसा जिसका अपना मिजाज था,शोहरत थी, पहचान थी।शहर का नाम था ग्वालियर। मै ग्वालियर जून में पहुंचा था,शहर को जानने का नशा ऐसा कि पैदल और साइकिल से तमाम गली -कूचे नाप लिए। ग्वालियर का किला देख लिया, तानसेन का मकबरा और रानी लक्ष्मीबाई की समाधि देख ली थी। ग्वालियर की नुमाइश बचपन मे देखने का मौका पहले ही मिल गया था।रह गया था सिर्फ तानसेन समारोह। दिसंबर में पता चला कि उपनगर हजीरा में ये समारोह होता है। उन दिनों न अखबार बहुत थे और न टीवी,न होर्डिंग।न सिटी बसें।ले देकर तांगे और टेंपो थे। मां समारोह में जाने की इजाजत किसी कीमत पर न देती।सो पड़ोसी समोखन लाल शर्मा का हाथ पकड़ लिया।वे संगीत और सुरा दोनों के प्रेमी थे। मीलों पैदल चल सकते थे।जेसी मिल के लेखा विभाग में थे शायद। शर्मा जी के साथ तानसेन समारोह में पहुंचा तो देखा तानसेन की समाधि के चबूतरे पर फर्श बिछा था, सामने एक छोटे से तंबू में श्रोताओं के बैठने की व्यवस्था थी।हल्की -फुल्की प्रकाश व्यवस्था थी।समारोह शुरू हुआ। किसने, क्या गाया, बजाया याद नहीं।याद सिर्फ इतना है कि समोखन लाल जी मुझे छोड़कर कलारी (मयखाना) गए तो वापस ही नहीं लौटे।मै सर्दी में ठिठुरता हुआ उनका इंतजार करता रहा।रात के आखरी पहर में समारोह की सभा भी समाप्त हो गई।रात को अकेले घर आ नहीं सकता था सो वहीं बिछात ओढ़कर सो गया। सुबह हुई तो पैदल घर लौटा, मां ने जमकर पीटा,तब समोखन लाल शर्मा ने ही बचाया।
                                       तब से अब तक पचास साल हो गए।एक साल भी ऐसा नहीं गया कि समारोह में न गया होऊं।बाद में शहर में सिटी बसें चलने लगी। समारोह की आखरी सभा के लिए वापसी हेतु बस निशुल्क मिलती थी।चिल्ला जाड़े में श्रोताओं के लिए फर्श के नीचे धान की घास बिछाई जाती थी।बाहर अलाव भी जलता था।समारोह स्थल के बाहर चाट -पकौड़ी के ठेले खड़े मिल जाते थे।बाद में पडौस में रहने वाले पद्मविभूषण पंडित कृष्ण राव पंडित जी से मुलाकात हो गई।सो कभी उनके तांगे पर लटककर तानसेन समारोह में पहुंच ही जाता था। बाद के वर्षों में समारोह स्थल के पास रहने वाले अपने रिश्तेदारों के यहां रात का डेरा होने लगा क्योंकि तब सभाएं रात के तीन -चार बजे तक चलती थीं।1979 में पत्रकारिता में प्रवेश किया तो समारोह में शामिल होना आसान हो गया।अब आयोजन मप्र के जनसंपर्क विभाग के अधीन था। संगीत प्रेमी भाऊ साहब खिड़वड़कर सर्वे सर्वा थे। बड़े से बड़े संगीतज्ञ से उनका सीधा रिश्ता था उनका। संगीतकार होटल के बजाय किसी स्थानीय संगीतकार या किसी संगीत प्रेमी के घर ठहराए जाते थे।1983 मे जनसत्ता से जुड़ा तो समारोह से रिश्ता और गहरा हो गया क्योंकि जनसत्ता तानसेन समारोह को आधा पृष्ठ तक छापता था।मै अक्सर जनसंपर्क विभाग के उप संचालक श्री भरत चंद नायक को मनाकर समारोह के उद्घाटन सत्र की व्हीसीआर कैसेट रात एक बजे जीटी एक्सप्रेस से जाकर टेलीविजन के दफ्तर पहुंचाता और जनसत्ता में फोटो तथा खबर देता। रविवार, दिनमान जैसी पत्रिकाओं में भी समारोह की मेरी रपटें खूब छपीं।
                                यही वो दौर था जब सरकार ने समारोह पर ज्यादा ध्यान देना शुरू कर दिया। इससे पहले सरकार पांच हजार रुपए का तानसेन सम्मान देना शुरू कर दिया। तत्कालीन रेल मंत्री माधवराव सिंधिया से अनुरोध कर मप्र सरकार से सम्मान की राशि 50हजार रूपए कराने में सफलता पाई। कालांतर में समारोह जनसंपर्क के बाद संस्कृति विभाग को चला गया। लेकिन मेरा समारोह से एक श्रोता का रिश्ता बना रहा। तानसेन समारोह में ही मुझे पंडित रविशंकर, पंडित भीमसेन जोशी, उस्ताद बिस्मिल्लाह खान, गंगू बाई हंगल,ध्रुपद के सभी शीर्ष गायक, पंडित जसराज, कुमार गंधर्व और न जाने कितने महान कलाकार यहां मिले।तानसेन समारोह की एक सभा बाद में तानसेन के गांव बेहट में होने लगी। यहां का भी मै नियमित श्रोता,और कयी बार अतिथि भी रहा। मैंने अपने मिलने वालों और परिजनों को भी इस समारोह से जोड़ा। तानसेन की समाधि पर हरिकथा,मीलाद शरीफ में मै न जाऊं ऐसा कभी भी नहीं हुआ।भाजपा शासन में एक बार तानसेन समारोह का स्थान बदलने की कोशिश की गई,मै अपने मित्रों के साथ धरने पर बैठ गया,तब जाकर सरकार को फैसला बदलना पड़ा। बीते पचास साल में तानसेन समारोह में चार नहीं चालीस चांद लगाए गए हैं।बजट कुछ हजार से अब पचास लाख रुपए तक बढ़ा दिया गया है, लेकिन समारोह की गरिमा पहले जैसी नहीं रही।अब समारोह राजनीति का शिकार है। बावजूद इसके मुझे इस समारोह पर नाज़ है और मैं मरते दम तक इसका चश्मदीद रहना चाहता हूं।

व्यक्तिगत विचार-आलेख-

श्री राकेश अचल जी ,वरिष्ठ पत्रकार , मध्यप्रदेश  । 

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