मैं, बतौर हिंदुस्तानी शेष विश्व से ईर्ष्या करता हूं!मुझे मोरक्को से ईर्ष्या है। मैं सेनेगल से जलता हूं। कतर पर यह सोच कर जलता-भुनता हूं कि कैसे कुछ दशक पहले तक के एक थर्ड ग्रेड देश ने विकास का वह चमत्कार दिखाया जो दुनिया का मैदान बन झूम रहा है। मैंने इसी वर्ष गपशप में यह अनुमान लगाया था कि वह वक्त दूर नहीं जब अफ्रीकी देश, भारत से बहुत आगे बढ़े हुए होंगे। भविष्य में पृथ्वी का झुग्गी-झोपड़ इलाका अफ्रीका नहीं, बल्कि भारतीय उपमहाद्वीप होगा। और मेरा वह सोचना मोरक्को, सेनेगल को फुटबॉल खेलते हुए, घाना नाम के एक देश में फैशन की क्रिएटिविटी देखते हुए पुष्ट है। मैं शनिवार की रात तब झनझना गया जब फुटबॉल विश्व कप में मोरक्को ने पुर्तगाल को हराया।
पाठकगण मुझे माफ करें, मैं क्रिकेट नहीं देखता। मैं उसे लचर भारतीय मिजाज का टाइमपास मानता हूं। वैश्विक महानगर की एक गली की आठ-दस टीमों के मूर्खों का जमावड़ा समझता हूं। मैं वह हिंदू हूं, जिसे उस जिंदादिली की तलाश है, जिससे फुटबॉल को किक लगती है। जो इंसान को मैदान में दौड़ाती है तो हार-जीत की मारकाट के बावजूद खेल को खेल की भावना से, नियम-कायदे से खेला जाता है। और जो लोग खेलते हैं वे खेल को, खेल के मैदान को जग दर्शन के मेले के भाव में नहीं, बल्कि जग खेला का मैदान की सोच वाले होते हैं। संयोग जो मैं शनिवार रात कोविश्व कप का इंग्लैंड बनाम फ्रांस केक्वार्टर फाइनल को देखने का इरादा बनाए हुए था लेकिन रिमोट से टीवी पर नेटफ्लिक्स का बटन दबा और नई फिल्मों को टटोलते-टटोलते‘कला’ नाम की फिल्म के एक सीन पर जा अटका। फिल्म देखने लगा। और वाह! अरसे बाद एक देखने लायक बॉलीवुड फिल्म! फिल्म में दिवंगत अभिनेता इरफान खान के बेटे बाबील खान की जुबानी जब कबीरदास का ‘जग दर्शन का मेला’ सुना तो जहां कुमार गंधर्व के गायन बनाम फिल्म के संगीत पर सोचने लगा तो वही फुटबॉल विश्व कप भी याद हो आया! पर फिल्म ने ऐसा बांधा कि फुटबाल क्वार्टर फाइनल मिस हुआ। सुबह ही जाना कि मोरक्को सेमीफाइनल में!
सोचें, मोरक्को! इस देश का फुटबॉल विश्व कप के सेमीफाइनल में पहुंचना! मैं सन् 1977-78 के दशक में जब ‘नई दुनिया’ में ‘परदेश’ कॉलम याकि वैश्विक घटनाओं पर लिखा करता था तब मोरक्को, इथियोपिया, केन्या, दक्षिण अफ्रीका जैसे देशों पर लिखा करता था। दुनिया के देशों को ले कर मेरी खासी जानकारी रही है। मगर कभी कल्पना नहीं की, सोचा नहीं कि मोरक्को दुनिया की फुटबॉल महाशक्ति बनेगा तो कतर विश्वकप का मेजबान देश। तभी समय मुझे क्या-क्या दिखलाते हुए है! सऊदी अरब भी फुटबॉल खेलते हुए है तो कतर और मोरक्को तथा ईरान भी खेलते हुए। वहीं अफ्रीका का सेनेगल देश भी! एशिया में जापान और दक्षिण कोरिया न केवल खेलते हुए, बल्कि यूरोपीय टीमों को हराते हुए भी! जाहिर है भारतीय उपमहाद्वीप याकि दक्षिण एशिया को छोड़कर पूरी दुनिया के लिए जग खेलों का मैदान है। जिंदादिली और किलिंग इंस्टिंक्ट के अपने-अपने झंडे लिए हुए अपने खेल दिखलाने का मौका है। मतलब जिंदगी खेल का, भिड़ने का नाम है न कि जग दर्शन और भक्ति की।
दिसंबर का महीना वर्षांत वाला है। सन् 2022 खत्म होने को है। दुनिया फुटबॉल का मजा ले रही है तो मैरी क्रिसमस के मूड में भी है। बतौर हिंदुस्तानी और हिंदू मेरी ईर्ष्या का एक बिंदुमैरी क्रिसमस भी है। मुझे हमेशा रंज रहा है कि हम हिंदू क्यों नहीं कोई त्योहार मजे के लिए, मजे में फुरसत के साथ, ईश्वर को धन्यवाद देते हुए मनाते हैं? मेरा प्रिय त्योहार दीपावली है। पर उसमें क्या करते हैं? दस तरह के काम। साफ-सफाई से लेकर चोरी-छुपे पटाखे जुगाड़ने तक के काम। हमारी पूजा लक्ष्मीजी से मांगने के लिए होती है। आप भी सोचिए, हम हिंदू हर दिन, हर एकादशी, प्रदोष, अमावस्या, व्रत-त्योहारको क्या लगातार पापों की मुक्ति, ईश्वर से मांगते रहने, उनके दर्शन और भक्ति में ही क्या जाया नहीं करते? साल के 365 दिनों में कौन सा दिन, व्रत-उपवास पर्व ऐसा है जो पापों से मुक्ति, इच्छाओं की पूर्ति की हमारी कामना के बिना हो! विषयांतर हो रहा है। पर बतौर हिंदुस्तानी हमारा जीवन या तो देखने के लिए है या पापों से मुक्ति पाने के लिए। संगीत की मेरी पसंदगी में कुमार गंर्धव की आवाज में ‘जग दर्शन का मेला’ सुनना मेरी आदत सी है। लेकिन कल फुटबॉल और ‘कला’ फिल्मके विचार में लगा मानों हम लोगों को कबीरदासजी बहुत भटका गए है। ‘जग दर्शन’ नहीं, बल्कि ‘जग खेला’ होना चाहिए। ‘जग दर्शन’में जीवन जीना तो मुर्दादिली है। टाइमपास है। निरर्थकता है। पौरूषहीनता है। पराश्रय है। भिक्षा, भीख और भयाकुलता में जीना है। तभी मेरा मानना है कि फुटबॉल में जब खिलाडी ठोकर, टक्कर, गिरते, पीड़ा से बिलबिलाते हुए हम हिंदुओं को दिखलाई देते हैं तो हममें से हर कोई सोचता होगा, उफ फालूत का खेल! हम घबरा जाते हैं। खेल की तपस्या से तौबा करते हैं। तभी हिंदुओं को वह कोई खेल नहीं रूचता है, जिसमें जी जान की किलिंग इंस्टिंक्ट दिखानी होती है। मेहनत होती है। चोट खाना होता है। सामूहिक याकि टीम एकजुटता, साझे की श्रेष्ठता होती है। रियल खिलाड़ी बनना और बनाना होता है। हम हिंदुओं ने अपने जीवन को दर्शनों से जीने, मांगने, पुण्य पाने के चक्र में जकड़ा हुआ है। तभी हमें रूचता नहीं है कि हम भी फुटबॉल खेले। मैरी क्रिसमस की तरह अपने त्योहार मनाएं। मतलब ईश्वर को घन्यवाद करें। सांता से विश करते हुए भी अपने पर विश्वास रखते हुए उत्सव को उत्सव की तरह मनाएं।
इस वाक्य का क्या अर्थ है?
जवाब में, मैं अपनी ईर्ष्या ही जाहिर कर सकता हूं। यह सत्य है और कटु सत्य है कि हम हिंदुओं की पीढ़ियों ने जग दर्शन मैं पश्चिमी सभ्यता के मैरी क्रिसमस की भी भोंड़ी नकल बनाई है। सोचें, कथित आधुनिक, लाखों करोड़ों रुपए के पैकेज पर जिंदगी जीने वाले भारतीय नौजवान क्या करते मिलेंगे। छुट्टियों पर घूमने, सिर्फ घूमने जाएंगे। शराब पिएंगे। घमाल मचाएंगे और टाइम पास! घूमना है, पार्टियां होनी हैं, ड्रिंक-मौजमस्ती सब होगा लेकिन वह नहीं होगा जो मैरी क्रिसमस पर पश्चिमी समाज करता हुआ मिलता है। उनके लिएमैरी क्रिसमस का वक्त साल में खुशी का सबसे बड़ा समय होता है। पर खुशी और आनंद किस तरह?सामूहिकता और पारिवारिकता के साथ या किताबों, संगीत, कला-संस्कृति-संग्रहालय तथा समुद्र, बर्फ, रेगिस्तान में एडवेंचर के साथ। वे जा लेटते है समुद्र किनारे याकि तमाम तरह की प्राकृतिक खूबसूरती का मनभावक हिस्सा बन कर! हां, मैं इस ईर्ष्या में भी जिंदगी जीता आया हूं कि लंदन की ‘द इकोनॉमिस्ट’ पत्रिका दिसंबर के अंकों में किस खूबसूरती से पूरे साल का लेखा-जोखा संजोए होती है! कैसे वह गुजरे वक्त और भविष्य की होनी के अनुमान लिए होती है।औरलोग क्यों उन्हें वैकेशन के वक्त में पढ़ते हैं? क्यों यूरोप और अमेरिका में तब पुस्तकों की रिकॉर्ड खरीद होती है। कैसे घूमने के नए-नए ठिकाने बनते हैं और बनाए जाते हैं।मैरी क्रिसमस के साथ प्रकृति की मनभावक खूबसूरत जगहों पर जा कर लोग जहां एडवेंचर करते हैं तो किताबे पढ़ते हैं, नाटक देखते हैं, संगीत सुनते हैं और सबसे बड़ी बात कम्युनिटी में सबकुछ सजाते-संवारते छोटी-छोटी खुशियों से खुशियां बांटते हैं। राष्ट्रपति भी फुरसत में, छुट्टी पर होता है तो जनता भी सबकुछ छोड़ अपने हाल, अपनी निजता में, अपने गांव और कम्युनिटी में वक्त की यादें बनाते हुए!
यही जिंदादिली है। जीवन को फुटबॉल में याकि जिंदगी को खेलते हुए जीना है। कोई माने या न माने अपना मानना है कि सन् 2022 काफुटबॉल विश्व कप दुनिया को यह दिखलाते हुए है कि आठ अरब लोगों में फुटबॉल की किक का आनंद मानवीय विकास की छलांगों की बानगी है। मेरे लिए यह इसलिए त्रासद है क्योंकि हम हिंदुस्तानी इसमें कहीं नहीं है। हम जग-अवतार दर्शन और भक्ति के फलसफे की बेड़ियों में ऐसे बंधे हैं कि- कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता, एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों की बात तो दूर एक गेंद पर किक मारने का जज्बा भी नहीं है हममें! क्या मैं गलत हूं?
आलेख श्री हरिशंकर व्यास जी, वरिष्ठ पत्रकार ,नई दिल्ली।
साभार राष्ट्रीय दैनिक “नया इंडिया” समाचार पत्र ।
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