बीते सप्ताह गुजरात और हिमांचल प्रदेश के विधानसभा चुनाव परिणामो ने एक बात पूरी तरह से साफ़ कर दी की देश में जब तक भी लोकतत्र है तब तक न तो कांग्रेस मुक्त भारत का सपना पूरा हो सकता है और न ही भाजाप की चुनावी राजनीति का तोड़ आसानी से हांसिल हो सकता है । इन परिणामो में गुजरात विधानसभा चुनाव में मिली प्रचंड और अप्रत्याशित जीत के बाद से ही भाजपा में गुजरात माडल की ही तरह गुजरात फार्मूला का हल्ला बना हुआ है और लोकसभा चुनाव से पहले जिन प्रमुख राज्यों में चुनाव होने है वहां सत्ता संगठन में आमूलचूूल परिर्वतन करने की सनसनी राजनैतिक गलियारों में चर्चा का विषय बनी हुई है लेकिन क्या गुजरात की तरह भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व इस प्रकार का इकतरफा और कड़ा फेसला ले सकता है और इस बात की कितनी गुंजाईस है कि फैसले के बाद भी चुनावों में गुजरात जैसी सफलता मिलेगी तो इसका सीधा सा तार्किक उत्तर है ” नहीं”
न तो भाजपा का केंद्रीय नेतृत्व राजस्थान , मध्यप्रदेश सरीखे किसी भी बड़े राज्य में गुजरात की तरह फैसला लेगा और न हीं इन राज्यो में चुनावों को गुजरात की तरह त्रिकोणीय मुकाबलों के मायाजाल में फसाया जा सकता है। गुजरात में ग्रामीण क्षेत्रों में कांग्रेस को उलझाने वाली आम आदमी पार्टी मध्यप्रदेश में अस्तित्व में तो है लेकिन चुनावों में उसका आधार भाजपा और कांग्रेस से असंतुष्ट बड़े जन-धन आधार वाले नेताओं पर टिका हुआ है तो किन्ही विशेष विधानसभा क्षेत्रों में आप मुकाबले को त्रिकोणीय या रोचक तो बना सकती है लेकिन वह प्रदेश स्तर पर परिणामों को प्रभावित नहीं कर सकती। यहां सीधा मुकाबला शिवराज की भाजपा और कांग्रेस की कमलनाथ के बीच होने वाला है इसलिये ये दोनो सेनापति ही चुनाव के एक साल पहले सबसे अधिक सक्रिय है । पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ जहां हर बारीक मुददों पर अपनी नजर बनाकार और सर्वे के आधार निकाय चुनावों की तरह प्रत्याशी चयन की प्रक्रिया में अब्बल आकर भाजपा में बढती भीड़ का फायदा मैदान में उठाना चाहते है । तो पुरानी पेंशन योजना , सस्ती बिजली और किसान कर्जमाफी जैसी भाजपा की गले की फ़ांस बनी बड़ी योजनाओं को फिर लागू करने का वायदा कर माहौल भी बना रहें है हालाकि प्रदेश कांग्रेस में संगठन के पुर्नगठन और नियुक्तियों के जो हाल है उससे राहुल गांधी की भारत जोड़ो यात्रा से कार्यकर्ताओं में जो उत्साह का संचार हुआ है उसे लगातार एक साल चुनावों तक बनाये रखना एक चुनौती है। और चुनाव से ठीक भाजपा के संगठन और वोटर को घर से निकलकर मतदान केंद्र तक ले जाने वाले पन्ना प्रमुख जैसी प्रक्रिया का मुकाबला कांग्रेस के लिए हमेशा की तरह मुश्किल हो जाने वाला है।
इसके बाद भी मध्यप्रदेश में चुनावों से एक साल पहले जहां कांग्रेस हर मोर्चे और मुददे पर भाजपा को टक्कर देती हुई नजर आती है वहां नेतृत्व परिर्वतन असंभव है। और चाहकर भी 2024 के लोकसभा चुनाव में भाजपा इतना बड़ा खतरा मोल नहीं लेगी दूसरी बात ये है कि विगत एक माह से नायक अवतार में चल रहे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान की छवि न तो गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी की तरह कृपापात्र मुख्यमंत्री की है और न ही मध्यप्रदेश को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बनाया है । भाजपा में आज की जो भी परिस्थिति हो उनको देखते हुए भले आज भाजपा के छोटे- बड़े सभी नेता प्रधानमंत्री का गुणगान करने के लिये विवश है लेकिन समकालीन राजनीतिक परिस्थितियों में मजबूत हुए और सत्ता की कमान सभलने वाले भाजपा की दूसरी पीढी के नेताओं में न तो महत्वकांक्षा की कमी है और न ही वे इतने अप्रभावी है कि उनको इस हद तक अनदेखा किया जा सके । फिर मध्यप्रदेश की राजनैतिक और भौगोलिक परिस्थितियां भी गुजरात से बहुत अलग है यहां मतदाता आज भी अपने क्षेत्रीय नेतृत्व को ही महत्व दिये हुए होता है इसलिये कठिन माने जाने वाले इन चुनावोे मे भले ही बड़ी संख्या में मौजूदा विधायकों और उम्रदराज नेताओं को सियासी सन्यास दिलाने के प्रयास किये जायें लेकिन बिना किसी मजबूत विकल्प और रणनीति के जनाधार वाले नेताओं के क्षेत्र में प्रत्याशी चयन भी आसान नहीं होगा और चुनावों में तो इसका खामियाजा भी भुगतना पड़ सकता है जैसे कि मध्यप्रदेश में दमोह जिले के उपचुनाव में भाजपा के दिग्गज माने जाने वाले मलैया की नाराजगी ने कांग्रेस को एक बड़ी जीत दिलाने में मदद की थी । वही परिस्थिति लगभग 25 प्रतिशत विधानसभा क्षेत्रों की है । सो यह तय है कि गुजरात फार्मूला के दूर के ढोल मध्यप्रदेश में आते आते कर्कश हो जायेंगे हां गुजरात फार्मूले के नाम पर खेमों में बटे मंत्रियों पर लगाम लगाने और संगठन के कान खीचने का काम जरूर किया जा सकता है जो नये साल में होना तय माना जा रहा है मध्यप्रदेश में गुजरात फार्मूला इससे अधिक किसी भी काम का नहीं होने वाला ।
अभिषेक तिवारी
संपादक – भारतभवः
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