हमारी संस्कृति और छप्पन का अजीबोगरीब आंकड़ा

हमारी संस्कृति और छप्पन का अजीबोगरीब आंकड़ा

भारत में सब कुछ अलग होता है। आंकड़े भी।दो आंकड़े तो जग जाहिर हैं। एक छत्तीस का और दूसरा छप्पन का। छप्पन का आंकड़ा स्वाभाविक है कि छत्तीस के आंकड़े से बड़ा होता है।ये आंकड़े अकेले भी जीवित रहते हैं और दो लोगों के बीच भी। छत्तीस के आंकड़े से अकेले छत्तीसगढ़ का ही नहीं बल्कि पूरे देश से ताल्लुक है। छत्तीस का आंकड़ा सनातन है।इसका वजूद त्रेता, द्वापर और कलियुग में भी मिलता है।इस आंकड़े के असंख्य उदाहरण हैं। महाभारत से लेकर रूस -यूक्रेन युद्ध तक इसी छत्तीस के आंकड़े के प्रमुख सह उत्पाद है। दीपावली के दूसरे दिन पड़वा को गोधन (गोवर्धन) पूजा के साथ ही हमारे यहां ‘अन्नकूट’ का श्रीगणेश हो जाता है। भगवान को सभी नये अन्न और शाक मिलाकर तरकारी बनती है। समर्थन में कढी,चावल भी पकाए जाते हैं। फिर पूड़ी तो होती ही है। गरीब की ओर से भगवान को यही छप्पन (56)भोग है। भगवान को खुश करने के लिए खास लोगों की ओर से जो छप्पन भोग लगाया जाता है,वो आम आदमी के बूते की बात नहीं।

 छप्पन भोग में जा चीजें शामिल होती हैं उनमें (जलेबी), धृतपूर (मेसू), वायुपूर (रसगुल्ला), चंद्रकला (पगीहुई), दधि (महारायता), स्थूली (थूली), कर्पूनाड़ी (लौंगपूरी), खंडमंडल (खुरमा), भक्त (भात), सूप (दाल), गोधूम (दलिया), परिखा, सुफलाढया सौंफयुक्त, दधिरूप (बिलसारू), मोदक (लड्डू), शाक (साग), सौधान (आधानौ अचार), मंडका (मोठ), पायस (खीर), परिष्टाश्च (पूरी), शतपत्र (खजला), सधिद्रक (घेवर), चक्राम (मालपुआ), चिल्डिका (चोला), दधि (दही), गोघ्रत, मंडूरी (मलाई), प्रलेह (चटनी), सदिका (कढ़ी), दधिशाकजा (दही की कढ़ी), सुफला (सुपारी), सिता (इलायची), हैयंगपीनम (मक्खन), फल, तांबूल, मोहनभोग, लवण, कषाय, मधुर, तिक्त, कटु, अम्ल, सिखरिणी सिखरन, अवलेह (शरबत), बालका (बाटी), इक्षु खेरिणी (मुरब्बा), त्रिकोण (शर्करा युक्त), बटक (बड़ा), मधु शीर्षक (मठरी), फेणिका (फेनी), कूपिका, पर्पट (पापड़), शक्तिका (सीरा), लसिका (लस्सी), सुवत, संघाय मोहन प्रमुख हैं।

भगवान को ये महाभोग अर्पित करने के बाद इसे मिश्रित कर आम जनता को प्रसाद वितरित किया जाता है। हमारे पडौसी शुक्ल दद्दा अन्नकूट का मतलब अलग बताते हैं।वे कहते हैं कि अन्नकूट महोत्सव में जाओ तो कूट, कूटकर खाओ।वे बताते हैं कि ये प्रसाद पेट से ऊपर अर्थात भूख से ज्यादा खाना चाहिए।ये सुपाच्य होता है। बचपन में शुक्ल दद्दा ने आधा पेट खाया तो वापसी में घर पर मार पड़ी।तब से शुक्ल जी का पूरा परिवार अन्नकूट प्रसादी कूट, कूटकर ही खाते हैं। कोई परोसा (घर ले जाने के लिए प्रसाद) दे दे तो कभी इंकार नहीं करते। अन्नकूट के लिए हमारी श्रीमती जी सात समंदर पार भी जाने को तैयार रहतीं हैं।शहर में तो अन्नकूट का निमंत्रण ठुकराने का तो सवाल ही पैदा नहीं होता। यदि अन्नकूट का कोई अवसर चूक जाए तो श्रीमती जी को महिनों तक अफसोस होता है। बहरहाल ये बात तो हुई अन्नकूट की, लेकिन सियासत में भी पिछले कुछ सालों से 56का आंकड़ा लोकप्रिय है।अब जिसका सीना 56 इंच का होता है उसी को डान कहा जाता है। हमारे यहां तो जनता चौकीदार भी 56 इंच के सीने वाले को चुनते हैं। जिनके पास सीने का साइज़ छोटा होता है वे 56 इंच का फोल्डिंग औजार जेब में रखते हैं। जहां तक बात छत्तीस के आंकड़े की है तो ये आंकड़ा तो आपको अपने घर, आसपड़ोस, दफ्तर,और राजनीतिक दलों के बीच मिल जाएगा। जहां छत्तीस का आंकड़ा नहीं, वहां न कोई रहस्य नहीं,रोमांच नहीं। यहां तक कि टीवी सीरियल तक में बिना 36 के आंकड़े के कोई पटकथा पूरी नहीं होती।अब तो भले ही दुनिया ,’ग्लोबल गांव ‘ बन गया है किन्तु जब तक दो मुल्कों के बीच 36 का आंकड़ा न हो तब तक मजा ही नहीं आता। मैंने तय किया है कि राष्ट्र हित मे मै अपनी नई किताब 36 और 56 के आंकड़े पर ही केंद्रित रखूंगा,ताकि एक साथ अनेक मित्रों को संतुष्ट कर सकूं।इन आंकड़ों के बिना देश, दुनिया में सब आधा -अधूरा है।

 

व्यक्तिगत विचार-आलेख-

श्री राकेश अचल जी ,वरिष्ठ पत्रकार , मध्यप्रदेश  ।

 

 

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