हमारा इतिहास : बिना विपक्ष की विधानसभा

हमारा इतिहास : बिना विपक्ष की विधानसभा

1 नवंबर को प्रदेश बनने के 47 दिनों बाद 17 दिसंबर 1956 को विधानसभा का पहला अधिवेशन बुलाया गया।  मिंटो हाल में जहां पर अब तक हमीदिया कॉलेज लगता था विधानसभा के प्रथम अधिवेशन के लिए तैयार किया गया अध्यक्ष कुंजीलाल दुबे थे और विपक्ष के नेता विश्वनाथ तमस्कर। पहली विधानसभा का सत्र जब 11:00 बजे शुरू हुआ और विधानसभा के कैप्टन ने जैसे ही माननीय सदस्य गण, माननीय सभापति महोदय कहा –  वैसे ही मध्यप्रदेश की विधानसभा की कार्यवाही विधिवत पहली बार शुरू हुई इसके बाद सभापति कुंजीलाल दुबे ने सदस्यों को स्वयं को सभापति नियुक्त किए जाने तथा सदस्यों को शपथ ग्रहण कराने के लिए अधिकृत किए जाने संबंधी राज्यपाल की दो सूचनाएं अंग्रेजी में पढ़कर सुनाई और कहा कि मैंने आज प्रातः 9:30 बजे राज्यपाल महोदय के सामने शपथ ग्रहण की है माननीय मुख्यमंत्री से आरंभ करते हुए क्रमानुसार प्रत्येक सदस्य मेरे सामने आकर शपथ ग्रहण करेंगे।

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जब 40 सदस्य शपथ ले चुके थे तब मध्य भारत से जनसंघ के विधायक रामचंद्र बिट्ठल बड़े ने व्यवस्था का प्रश्न उठा दिया और कहा कि वर्तमान सदस्य पहले ही अपनी मूल विधानसभा अर्थात पुराने मध्य प्रदेश ,मध्य भारत , विंध्यप्रदेश और भोपाल विधानसभा में सदस्य के रूप में शपथ ले चुके हैं तो दोबारा क्यों कराई जा रही है। उसका क्या संवैधानिक औचित्य है ।  समाजवादी ठाकुर निरंजन समर्थन किया इस बात पर सभापति ने इस तरह का प्रश्न उठाने का अधिकार सदस्यों को नहीं है।  इस तरह पहली विधानसभा शुरू हुई पहली विधानसभा की सरकारी भाषा हिंदी और मराठी थी।  विधानसभा बहुत विशालकाय थी मध्य प्रांत और महाकौशल के सबसे ज्यादा सदस्य मध्यभारत और विंध्यप्रदेश  के थे भोपाल के 30 सदस्य मिलकर 288 सदस्य होते थे।  सन 1967 में सदस्य संख्या बढ़कर 296 हुई ।  1977 में 320 हो गयी । यह विधानसभा 2000 तक चली  बाद में 90  विधायक छत्तीसगढ़ चले गए इस तरह वापस मध्यप्रदेश में 230 सदस्यीय सदन रह गया। पहली विधानसभा से लेकर तीसरी विधानसभा तक मान्यता प्राप्त विरोधी दल नहीं था यह समस्या सन 1962 में खत्म हुई जब जनसंघ के वीरेंद्र कुमार सकलेचा विधिवत विरोधी दल के नेता बने उस साल जनसंघ के 40 विधायक चुनकर आए थे।

वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनैतिक विश्लेषक
श्री दीपक तिवारी कि किताब “राजनीतिनामा मध्यप्रदेश” से साभार ।

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