धर्म-ग्रंथ

आदि शंकराचार्य : सनातन धर्म के उद्धारक

6 मई- आदि शंकराचार्य जयंती विशेष :

भारतीय सांस्कृतिक इतिहास में सर्वप्रथम दक्षिण से नवीन धर्मतत्व को लेकर उत्तर भारत में आने और अपने असाधारण सामर्थ्य से उत्तर भारत में अपने नवीन धर्म का आरोपण करने वाले द्रविड़ देशोत्पन्न ब्राह्मण शंकराचार्य ने न केवल चारों वेदों सहित समस्त शास्त्रों, व्याकरणादि ग्रन्थों का अध्ययन एवं शुद्ध ज्ञान आठ वर्ष की अल्पायु में ही प्राप्त कर लिया था, बल्कि सोलह वर्ष की किशोरावस्था में ही गीता, उपनिषद् और ब्रह्मसूत्रों की भाष्यादि की रचना तक उन्होंने कर डाली थी। तत्पश्चात उन्होंने चौबीस वर्ष तक में समस्त भारत के वेदविरुद्ध मत वालों को शास्त्रार्थ में परास्त कर भारत में सनातन धर्म को पुनर्स्थापित किया। महान हिन्दू धर्म सुधारक शंकराचार्य की बतीस वर्ष की अल्पायु में ही मृत्यु हो गई, परन्तु मृत्यु से पूर्व तीन बार उन्होंने समस्त भारत का भ्रमण किया तथा प्रसिद्ध विद्वानों से वाद- विवाद करके अद्वैतवाद के सिद्धांत की रचना की।

वे महान विचारक ही नहीं, वरन उच्च कोटि के संगठनकर्ता भी थे। उनके संगठनात्मक उत्साह के सर्वाधिक प्रसिद्ध स्मारकों में उनके द्वारा कर्णाटक की श्रृंगेरी में , गुजरात की द्वारका में, उड़ीसा की पूरी में एवं हिमालय की बर्फीली चोटियों पर बदरीनाथ में स्थापित विख्यात मठ हैं। शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म को अनेक कुरीतियों से निजात दिलाया। प्राचीनकालीन देवी पूजा से जुड़ी शाक्त संप्रदाय पांच मकारों अर्थात मत्स्य, मांस, मद्य, मुद्रा (नृत्य) और मैथुन में विश्वास करता था। शंकराचार्य ने इस संप्रदाय को सुधारकर इसकी मूल प्रतिष्ठा पुनर्स्थापित की। शंकराचार्य ने भैरव देवता को प्रसन्न करने के लिए मानवों की बलि देने वाले तात्कालिककापालिकों को भी सुधारा। इस प्रकार शंकराचार्य ने हिन्दू धर्म को पुनः उर्जस्वित कर उसे नवीन दर्शन एवं नया स्वरुप प्रदान किया ।

मसीह के आठवीं शताब्दी में भारत के केरल राज्य के कालडी ग्राम में एक वेदाचार संपन्न तपोनिष्ठ नम्बूदरि ब्राह्मण के घर में जन्मे शंकराचार्य की मातृभाषा मलयालम थी, लेकिन अलौकिक प्रतिभा के बल पर बहुत कम समय में ही उन्होंने महाभाष्य पर्यंत संस्कृत का अध्ययन कर लिया। तत्पश्चात वे अद्वैत वेदान्त के महान आचार्य गौड़पाद के शिष्य गोविन्द भगवत्पाद की तलाश में लम्बी यात्रा करते करते हिमालय के दुर्गम भाग उत्तराखण्ड आ पहुंचे। गोविन्द भगवत्पाद इस कुशाग्र अल्पव्यस्क विद्यार्थी की अद्भुत प्रतिभा को देखकर चमत्कृत रह गये तथा उन्होंने इस बालक को अद्वैत सिद्धांत का गूढ़ रहस्य बतलाया। गुरु के चरणों में तीन वर्षों तक अद्वैत साधना कर शंकर अद्वैत तत्व में पारंगत हो गये। वहाँ से वे काशी आकर मणिकर्णिका घाट पर आसन जमा अपने अद्वैत सिद्धांत का प्रवचन करने लगे।

एक अल्पव्यस्क यति की ऐसी बड़ी ही रहस्य एवं प्रगल्भ वाणी को सुनकर विद्वत्मण्डली आनन्द से गदगद हो उठी, वहीं काशी के पंडितों में खलबली मच गई। काशी में ही शंकर के प्रथम शिष्य सनन्दन ने दीक्षा ली थी। काशी में अपने विद्वत्बल का संतुलन कर लेने के पश्चात शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर भाष्य बनाने का मन बनाकर व्यासाश्रम की ओर प्रस्थान किया। अपनी शिष्यमण्डली के साथ उत्तराखण्ड की ओर जाते हुए इन्हें पता चला कि हृषिकेश तक समूचा उत्तराखण्ड चीनी डाकूओं के भय से आक्रान्त है। बद्रीनाथ क्षेत्र पहुंचने पर उन्हें ज्ञात हुआ कि डाकूओं ने मन्दिर को नष्ट कर दिया है और पुजारियों ने यज्ञेश्वर विष्णु की मूर्ति को गंगा के नारद कुण्ड में छुपा रखा है, तो मूर्ति को नारदकुण्ड से निकालकर शंकर ने मूल मन्दिर में प्रतिष्ठा की और स्वजातीय एक नम्बूदरि ब्राह्मण को उसकी पूजा- अर्चना के लिए नियुक्त किया।

उसी ब्राह्मण के वंशधर आज तक बद्रीनाथ भगवान के पुजारी होते चले आये हैं तथा वे रावल कहलाते हैं। शंकर बद्रीनाथ के उत्तर में व्यास गुहा में जाकर रहने लगे। अगम्य व्यास गुहा में ही चार वर्ष तक रहकर ब्रह्मसूत्र, गीता, उपनिषद तथा सनत्सजातीय पर अपने भाष्य रचे तथा शिष्यों को उन्हें पढ़ाया। उनका शिष्य सनन्दन बड़ा ही प्रतिभाशाली था। शंकर ने अपना भाष्य उसे तीन बार पढ़ाया और उसकी सेवा से प्रसन्न होकर उसका नाम पादपद्म रखा। आगे चलकर सनन्दन का वही नाम प्रसिद्ध हो गया। चार वर्षों के दौरान वहीं पर व्यासगुहा में ही रहकर प्रस्थानत्रयी पर भाष्य रचा और शिष्यों को पढ़ाकर वे केदारक्षेत्र आये। केदारक्षेत्र में शंकर ने तप्तकुण्ड का आविष्कार किया। फिर वे कुछ दिन गंगोत्री में रहे। तत्पश्चात वे उत्तरकाशी चले गए। इस समय तक शंकर का नाम तथा यश सम्पूर्ण उत्तराखण्ड में फ़ैल चुका था तथा बड़े- बड़े पंडित दूर- दूर देशस्थ जो वहाँ पहुंचते थे, उनसे वाद- विवाद और शास्त्रार्थ किया करते थे।

इस समय उत्तर भारत में दो कथित महान पंडित वेदोद्धारक कुमारिल भट्ट और मण्डन मिश्र उपस्थित थे। शंकर ने उन दोनों की बहुत नाम और कीर्ति सुनी थी। अतः शास्त्रार्थ में पराजित कर उन दोनों को अपना अनुगत शिष्य बनाने की कामना से शंकर उत्तराखण्ड से यमुना के किनारे- किनारे प्रयाग आ पहुंचे। शंकराचार्य स्वरचित ब्रह्मसूत्र के भाष्य की वार्तिक लिखने के लिए भी किसी असाधारण विद्वान की खोज में थे। लेकिन उतरकाशी से चलकर जब शंकर प्रयाग पहुंचे तो उन्होंने देखा कि कुमारिल तुषाग्नि में जलकर अपने शरीर को भष्म कर प्रायश्चित कर रहे थे। इतने बड़े मीमांसक को इस प्रकार शरीरान्त करते देख शंकर को बड़ा ही दुःख हुआ।

अल्प वार्तालाप में कुमारिल ने शंकराचार्य को मंडन मिश्र को अपना अनुयायी बनाने की सलाह दी। शंकर जब उत्तरकाशी में आये तब उनकी मुठभेड़ काशी के धुरन्धर पंडित पूर्वमीमांसा वादी मण्डन मिश्र से हुई । मण्डन मिश्र और उनकी पत्नी उभय भारती दोनों बड़े ही वाग्मी थे, परन्तु शंकर ने उन्हें शास्त्रार्थ में हराकर सन्यासी बना लिया। उनका नाम सुरेश्वर रखा और उन्हें साथ ले वे श्रृंगेरी पहुंचे तथा वहाँ मठ की स्थापना की और उसे अद्वैत प्रचार का प्रधान केंद्र बनाया। श्रृंगेरी मठ में शंकर ने अपने शिष्यों से अपने भाष्य पर वार्तिक लिखवाया। अब शंकर की मण्डली में बड़े- बड़े दिग्गज विद्वान पंडित थे, उनके चौदह प्रमुख शिष्यों में से पाँच सन्यासी थे। चार पटशिष्य थे- सुरेश्वराचार्य (मण्डन मिश्र), पद्मपादचारी (सनन्दन), हस्तामलकाचार्य और तोरकचार्य। अपने चारों शिष्यों को शंकर ने चारों दिशाओं में पीठ स्थापित करके उन्हें पीठाधीश्वर बनाया। इन मठों का अधिकार क्षेत्र निश्चित करते हुए भारत का उतरी और मध्य भू-भाग ज्योतिर्मठ के शासनाधीन, पश्चिमी भाग द्वारका स्थित शारदा मत के शासन में, दक्षिणी भाग श्रृंगेरी मत तथा पूर्वी भाग गोवर्द्धन मत के अंतर्गत किये। इन मठों में जो चार शिष्य पीठाधिप नियुक्त किये गये वे भी नियम से बनाये गये।

वैदिक सम्प्रदाय में वेदों का सम्बन्ध भिन्न-भिन्न दिशाओं से माना गया है। ऋग्वेद का सम्बन्ध पूर्व दिशा से, यजुर्वेद का सम्बन्ध दक्षिण से , सामवेद का पश्चिम तथा अथर्व का उत्तर से। यज्ञ पात्रों में भी इसी नियम से पुरोहित उर्ध्वयु बैठते हैं। जिस शिष्य का जो वेद था, उसकी नियुक्ति उसी दिशा में की गई। पद्मनाभ ऋग्वेदी काश्यप गोत्री ब्राह्मण था, उसकी नियुक्ति पूर्व दिशा में गोवर्द्धन मठ की, सुरेश्वराचार्य शुक्ल यजुर्वेद की कण्व शाखा के ब्राह्मण थे उन्हें दक्षिण की श्रृंगेरी मठ की हस्तामलक को सामवेदी को पश्चिम के शारदा मठ की तथा तोरक अथर्ववेदी को उतराखण्ड के ज्योतिर्मठ की गद्दी सौंपी । उत्तराखण्ड के ज्योतिर्मठ में कुछ दिन निवास के बाद शंकर ने कश्मीर पर सर्वज्ञ पीठ पर अधिरोहण किया। तत्पश्चात पुनः बद्रीनाथ गये। कुछ दिन बद्रीनाथ में व्यतीत कर शंकर दत्तात्रेय की गुफा में उनके साथ रहे। फिर नेपाल की यात्रा कर कैलाश चले गये और वहीं उन्होंने अपना नश्वर शरीर त्यागा। इस प्रकार दक्षिण में उत्पन्न यह धर्माचार्य अपने धर्म को सुदूर उत्तराखण्ड में आरोपित कर वहीँ अन्तर्ध्यान हो गया। उन्होंने केवल बतीस वर्ष की अल्पायु पाई और इसी में दक्षिण से लेकर उत्तर तक उनके नाम व धर्म का डंका बज उठा ।

देवदत्त दुबे: भोपाल, मध्यप्रदेश 

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