गुरु , क्या इन दो अक्षर के बिना जिसमे प्रत्येक जीव के जीवन की सार्थकता की कल्पना करना भी संभव है शायद नहीं , गुरु शब्द को हम किसी संज्ञा में नहीं बांध सकते न ही इसकी परिधि का आंकलन किया जा सकता है वास्तव में गुरु वह है जो आपको आपके जीवन के उद्देश्य के साथ साथ उन्को पूर्ण करने की बारीक विधियां एवं ज्ञान से आपका परिचय करता है फिर चाहे उसका ज्ञान किसी भी क्षेत्र में आपको आगे बढ़ने का काम करता हो लेकिन ज्ञान स्वयं प्रकट नहीं हो सकता उसके पीछे किसी गुरु का होना उतना ही स्वभाविक सत्य है जितना घूप के पीछे सूर्य का , गुरु किसी भी रूप में आपका मार्गदर्शन कर सकता है फिर चाहे वह आपका अनुभव हो , शिक्षा हो कोई अप्रत्याशित घटना ही क्यों न हो लेकिन ऐंसा कोई भी भाव जो आपके जीवन की दिशा दशा बदल दे वह प्रत्यक्ष या अप्रतयक्ष गुरु के बिना सम्भव नहीं है ।
वर्तमान में हम गुरु को सिर्फ आध्यत्मिक दृष्टिकोण से ही देखते है या फिर राजनैतिक गुरुओं की चर्चा बानी रहती है लेकिन यथार्थ में हमारे जीवन की प्रत्येक क्रिया में जीवनशैली में सुबह से लेकर रात तक किसी न किसी गुरु द्वारा तैयार किये ज्ञान का ही योगदान होता है फिर चाहे हमारे द्वारा ग्रहण किये जाने वाला अन्न हो जो किसी किसान द्वारा अपने पुरखों से सीखा हुआ कृषि ज्ञान हो, पहने जाने वाले कपडे जो किसी गुरु द्वारा शिखाई जाने वाली कला हो या हमारे दैनिक जीवन में उपयोग की जाने वाली कोई भी वास्तु जिसके निर्माण एवं उपयोग में किसी गुरु का ज्ञान ही समाहित होता है जो हमारे जीवन को सुलभ बनता है। क्या ऐंसा कोई भी काम आप आँख बंद करके चिंतन कर सकते है ? क्या हमारे जीवन में कोई भी ऐंसी क्रिया है जो किसी गुरु द्वारा प्रतिपादित होकर हमारे सामने न आयी हो या हम्मे पहले से विधमान हो शायद नहीं !
सनातन धर्म में तो भगवान शंकर को आदिगुरु अथवा प्रथम गुरु मानकर सप्तऋषियों को समस्त प्रकार के ज्ञान से परिपूर्ण करने का वर्णन आता है जिससे श्रष्टि का सञ्चालन सम्भव हो सके और मानव अपने जीवनकाल में सभी सुखों का भोग करते हुए परमानद को प्राप्त करे और इस ज्ञान में सिर्फ त्याग तपस्या को ही सर्वश्रेष्ठ नहीं मन गया है इसमें जीवन के प्रत्येक काल में समस्त आवश्यकताओं को महत्व दिया गया है जिसमे नृत्यकला, मनोरंजन, योग ,भोग, संगीत ,स्वस्थ , शस्त्र, शास्त्र प्रत्येक विषय पर गहन अध्ययन किया गया है एवं एक आदर्श जीवन के लिए सभी को अनिवार्य समझा गया है । इसका बोध महाकाल की नगरी उज्ज्जयनी में सांदीपनि आशाराम जाने पर होता है जहा भगवान कृष्ण को महर्षि सांदीपनि के द्वारा शिखाई गयी 64 कलाओं का वर्णन है जिसमे वेश बदलना ,माला गुथना , जैसी क्रियाने भी महत्वपूर्ण कलाओं के रूप में प्रदर्शित की गयी है वास्तव में गुरु का ज्ञान लालन, पोषण से ही एक मां के रूप में प्रारम्भ हो जाता है। जो प्रत्येक जीव मानव, पशु, पक्षी की प्रथम गुरु होती है। जिसके बिना जीवन को दिशा देना तो दूर शायद जीवन को सुरक्षित रखना भी सम्भव न हो पिता रुपी गुरु हमें अनुशाशन के सांचे में ढालकर जीवन के दुर्गम मार्गों पर चलने के योग्य बनता है तो हमारी कर्मभूमि में शिक्षा दीक्षा देने वाले गुरु की भूमिका ही सर्वोपरि होती है परन्तु श्रेष्ठ गुरु ही जीवन की सार्थकता को सिद्ध नहीं कर सकता इसके लिए स्वयं में सफल होने के भाव एवं सीखने की प्रवत्ति होना भी आवश्यक है यदि आपकी दृष्टि में सदैव एक शिष्य होगा तो आप प्रत्येक परिस्तथी से कुछ सकारात्मक सीख ले सकतें है । मनुष्य का जन्म एक कच्ची मिटटी के सामान होता है और अंत भी उसी मिटटी में समाकर हो जाता है लेकिन इन दोनों संस्कारों के मध्य जो समय हमें प्राप्त होता है उसी का नाम जीवन है और जीवन को बिना गुरु के मार्गदर्शन के सफल नहीं बनाया जा सकता आदि से अनत तक हर पल गुरु के द्वारा सीखे हुए पाठ एवं स्वं गुरु ही हमारा एकमात्र मार्गदर्शक होता है जो काल की निरंतर चलने वाली इस अंतहीन प्रक्रिया में हमारे हिस्से आये समय को जिसे हम जीवन कहते है को सार्थकता प्रदान करता है ।