पिछले साल काबुल पर तालिबान का कब्जा होते ही भारत सरकार बिल्कुल हतप्रभ हो गई थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि वह क्या करे? हमारे विदेश मंत्री ने कहा था कि हम बैठे हैं और देख रहे हैं। उसी समय मैंने तालिबान के कब्जे के एक-दो दिन पहले ही लिखा था कि भारत सरकार को अत्यंत सतर्क रहने की जरुरत है लेकिन मुझे खुशी है कि हमारे कुछ अनुभवी अफसरों की पहल पर भारत सरकार ने ठीक रास्ता पकड़ लिया। उसने दोहा (क़तर) में स्थित तालिबानी तत्वों से संपर्क बढ़ाया, अफगानिस्तान को हजारों टन गेहूं और दवाइयां भेजने की घोषणा की और तालिबान सरकार से भी संवाद किया।
काबुल स्थित अपने दूतावास को भी सक्रिय कर दिया। उधर तालिबान नेताओं और प्रवक्ता ने भारत की मदद का आभार माना, हालांकि भारत सरकार ने उनकी सरकार को कोई मान्यता नहीं दी है। इस बीच इस साल जनवरी में प्रधानमंत्री मोदी ने मध्य एशिया के पांचों गणतंत्रों के मुखियाओं के साथ सीधा संवाद भी कायम किया था। उन्होंने शांघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन में अफगानिस्तान के बारे में भारत की चिंता को व्यक्त किया था। अफगानिस्तान में आतंकवादी शक्तियां अब ज्यादा सक्रिय न हो जाएं, इस दृष्टि से भारत ने कई पड़ौसी देशों के प्रतिनिधियों का सम्मेलन भी किया था लेकिन हमारे राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित दोभाल बधाई के पात्र हैं कि जिन्होंने नई दिल्ली में कल पांचों मध्य एशिया राष्ट्रों— तुर्कमेनिस्तान, कजाकिस्तान, उजबेकिस्तान, ताजिकिस्तान और किरगिजिस्तान— के सुरक्षा सलाहकारों का पहला सम्मेलन आयोजित किया। इस सम्मेलन में मुख्य विषय यही था कि अफगानिस्तान को आतंकवाद का अड्डा बनने से कैसे रोका जाए? पाकिस्तान के ज्यादातर आतंकवादी संगठन अफगानिस्तान के कबाइली इलाकों से अपना जाल फैलाते हैं। न पाकिस्तान और न ही अफगान सरकार उन पर काबू कर पाती है। उनकी शक्ति का असली स्त्रोत वह पैसा ही है, जो इस्लामी देशों से आता है और अफीम की खेती है। सभी सुरक्षा सलाहकारों ने इन स्त्रोतों पर कड़ी रोक लगाने की घोषणा की है।
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सभी प्रतिनिधियों ने तालिबान सरकार से मांग की है कि वह इन आतंकियों को किसी भी तरह की सुविधा न लेने दे। अपने इस आग्रह को उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रस्ताव न. 2593 के अनुसार ही बताया है। भारत सरकार की इस पहल का कुछ न कुछ ठोस असर जरूर होगा लेकिन यह तो तात्कालिक समस्या का तात्कालिक उपचार है। फिलहाल जरूरत है, संपूर्ण दक्षिण एशिया और मध्य एशिया के राष्ट्रों के बीच यूरोपीय संघ की तरह एक साझी संसद, साझी न्यायपालिका, साझा बाजार, साझी मुद्रा, मुक्त व्यापार और मुक्त आवागमन की व्यवस्था कायम हो। यदि भारत इसकी पहल नहीं करेगा तो कौन करेगा? सरकारें करें या न करें, इन देशों की जनता, जिसमें ईरान, म्यांमार और मोरिशस को भी शामिल कर ले तो इन 16 राष्ट्रों को मिलाकर ‘जन-दक्षेस’ नामक संगठन के जरिए एक युगांतरकारी संगठन खड़ा किया जा सकता है। यदि भारत की पहल पर यह संगठन बन गया तो एशिया अपने 10 वर्षों में ही यूरोप से अधिक समृद्ध हो सकता है।
आलेख श्री वेद प्रताप वैदिक जी, वरिष्ठ पत्रकार ,नई दिल्ली।
साभार राष्ट्रीय दैनिक नया इंडिया समाचार पत्र ।
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