समझ में नहीं आता कि तवांग क्षेत्र में हुई भारतीय और चीनी फौजियों की मुठभेड़ पर विपक्ष ने संसद में इतना हंगामा क्यों खड़ा कर दिया। यदि चीनी सैनिक हमारी सीमा में घुस जाते और हमारी जमीन पर कब्जा कर लेते तो यह हमारी चिंता का विषय जरुर होता लेकिन यदि इसमें भी सरकार की लापरवाही या कमजोरी होती तो विपक्ष का हंगामा जायज होता। 9 दिसंबर को घटी इस घटना की खबर ने एक सप्ताह बाद तूल पकड़ा है, यह तथ्य ही यह बताता है कि इसे लेकर संसद की कार्रवाई का बहिष्कार करना ज़रा ज्यादा चतुराई दिखाना है। इन दिनों सरकार को लताड़ने के लिए कांग्रेस और विपक्ष के पास कोई खास मुद्दे नहीं हैं। इसीलिए तवांग के मामले को तूल दिया जा रहा है। विपक्ष का काम सरकार को निरंतर पिन चुभाते रहना है, इसमें कोई बुराई नहीं है लेकिन उसे यह भी सोचना चाहिए कि चीन से पिटने की मनमानी व्याख्या का प्रचार करने से हमारे सैनिकों पर कितना बुरा असर पड़ेगा। गलवान, तवांग, लद्दाख, अरूणाचल जैसे बर्फीले इलाकों में हमारे सैनिकों ने चीनी घुसपैठियों को जिस तरह से खदेड़ा है, उसके कारण उनका उत्साहवर्द्धन करने की बजाय हमारी संसद से उल्टा संदेश जाना कहां तक उचित है?
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रक्षा मंत्री राजनाथसिंह ने संसद में जो तथ्य पेश किए हैं, उनसे तो लगता है कि चीनी सैनिकों ने तवांग में घुसपैठ की जो कोशिश की थी, वह तो विफल हो ही गई है बल्कि यह भी हुआ है कि चीनी फौजी घायल हुए हैं और उनके बहुत-से हथियार छोड़कर उन्हें अपनी सीमा में भागना पड़ा है। मुठभेड़ के बाद दोनों फौजों के कमांडरों के बीच संवाद भी हुआ है और चीन सरकार के प्रवक्ता का कहना है कि चीन सीमांत पर अब शांति है लेकिन हमारा विपक्ष पता नहीं क्यों अशांत है? जैसे हमारे विपक्ष को कुछ न कुछ शोर मचाने के लिए कोई न कोई बहाना चाहिए, ऐसे ही अमेरिका को कोई न कोई मुद्दा चाहिए, जिसके आधार पर भारत-चीन तनाव का अलाव जलता रहे। भारत और चीन कह रहे हैं कि तवांग पर शांति है लेकिन बाइडन-प्रशासन मुठभेड़ का राग अलाप रहा है। यही रवैया उसका ताइवान पर भी रहा है। भारत सरकार काफी बुद्धिमानी और संयम से काम ले रही है। हमें चीन का मुकाबला करने के लिए सदैव तैयार रहना है लेकिन किसी भी हालत में किसी महाशक्ति का मोहरा नहीं बनना है। यह सच है कि भारत-चीन सीमांत के क्षेत्रों में चीन अपनी फौजी तैयारी में इधर काफी मुस्तैदी दिखा रहा है लेकिन भारत की तैयारी भी कम नहीं है। भारत-चीन सीमांत इतना सुपरिभाषित नहीं है, जितनी कि कभी ‘बर्लिन वाॅल’ थी, इसीलिए दोनों तरफ से कभी-कभी जान-बूझकर और कभी अनजाने ही अतिक्रमण हो जाता है। इन स्थानीय मुठभेड़ों को जरूरत से ज्यादा तूल देना ठीक नहीं है। दोनों तरफ के फौजियों के बीच संवाद का होना तो अच्छी बात है लेकिन मुझे आश्चर्य होता है कि इस मुद्दे पर मोदी और शी चिन फिंग के बीच, जो गलबहिया मित्र रहे हैं, सीधी बातचीत क्यों नहीं हो रही है?
आलेख श्री वेद प्रताप वैदिक जी, वरिष्ठ पत्रकार ,नई दिल्ली।
साभार राष्ट्रीय दैनिक “नया इंडिया” समाचार पत्र ।
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