कलमदार

बुद्धी गंवाई, और उज्जड़ बने !

पचहतर का भारत –  कलियुग बढ़ा या घटा?-1: 

भारतीय उपमहाद्वीप पृथ्वी का प्राचीनतम सांस्कृतिक भूभाग है। जल्दी ही भारत आबादी में दुनिया का नंबर एक देश होगा। ऐसे देश के 140 करोड़ लोगों का जीवन कैसा होना चाहिए? खुशहाल, संतोषी, सफल जीवन। पर सत्य क्या है? लोगों का अव्यवस्था-केहोस-भ्रष्टाचार में लावारिस जीवन! कोई एक सौ करोड़ लोग पांच किलो राशन या पांच सौ, हजार, दो हजार रुपए की खैरात पर जीते हुए हैं। विश्व की सर्वाधिक दीन-हीन, निर्धनतम भीड़ का देश है भारत!  आर्थिकी में पराश्रित (चीन) और देशी-क्रोनी ईस्ट इंडिया कंपनियों की बेइंतहां लूट। एटमी महाशक्ति के बावजूद दुश्मनों से असुरक्षित देश। धर्म, समाज, राजनीति व नेतृत्व में हर तरफ सड़ांध। लोगों का बेबस, भयाकुल और अंधविश्वासी जीवन।

भला कैसे आजादी के पचहतर वर्षों में भारत ऐसा देश बना? कौन है संतुष्ट? किसे नहीं है भविष्य की चिंता? कौन नहीं है भूखा? राजनीति का क्या बना है? समाज कैसी किस्सागोई लिए हुए है? धर्म कैसा जड़ है। सनातनी सभ्यता-संस्कृति में कैसी-कैसी कुरूपताएं हैं? क्या आजादी ने उन सनातन मूल्यों को नहीं गंवा दिया, जिनसे डेढ़ सहस्त्राब्दी की दासता के बावजूद संस्कृति धड़कती रही? जो देश सभ्यता का ‘द वंडर दैट वॉज इंडिया’ का पालना था, वह कैसे जहालत-काहिली का कुआं बना हुआ है? क्यों भारत बुद्धिहीनता के अंधकार में है? क्यों भारतीयों की आंखें, दिल-दिमाग और बुद्धि में सत्य देखने व समझने की सामर्थ्य नहीं? क्यों वह पुरुषार्थी और स्वाभिमानी नहीं है?…असंख्य सवाल। इसलिए जरूरी है कि 15 अगस्त 1947 की नींव और सफर पर नए सिरे से विचार हो। सो, गौर करें मेरे इस मंथन पर-…

बुद्धी गंवाई, और उज्जड़ बने!

भारत आज क्या है? उसका जीवन, उसकी सांस, उसकी आवाज में क्या धड़कता और गूंजता हुआ है? क्या राष्ट्र शरीर का खून झूठ से काला नहीं है? क्या मनुष्य शरीर प्रदूषणों में धड़कता हुआ नहीं है? हवा-पानी, खाना-पीना ही नहीं, बल्कि दिमाग का झूठ और भय के प्रदूषणों में आम और खास सभी का जीवन हाफंता हुआ। जैसे देश का दिमाग, नैरेटिव और दिशा वैसे ही नागरिकों का खामोख्याली में भटका हुए जीवन। अपने हाथों, अपने कर्मों से भयाकुल, मुफ्तखोर समाज की रचना करते हुए लोग इस इलहाम में जी रहे हैं कि हम विश्वगुरू हो रहे हैं।

उफ! विश्व गुरू का जुमला और समाज बिखराव तथा असुरक्षा की अंधेरी सुरंग की और बढ़ने की रियलिटी। यह पचहत्तर वर्षों का सतत अनुभव है। समाज में कितने झगड़े हुए? कितनी परस्पर खुन्नस बनी? कैसे आर्थिकी में गरीबी और असमानता बावजूद उन जुमलों के बढ़ी जो आजादी से लोग लगातार सुनते आए हैं। तभी जुमलों पर पहले विचार होना चाहिए। किस-किस ने नहीं बोले जुमले! उनसे लोगों का क्या बना है, क्या बनता है, यहीं 75 वर्षों की त्रासदी है। असली भारत कहानी है। समाजवाद, जनकल्याण, गरीबी हटाओ, धर्मनिरपेक्षता, लोक कल्याण, भ्रष्टाचार मुक्ति और सबका साथ-सबका विकास, तुष्टिकरण नहीं तृप्तिकरण जैसे इतनी तरह के ऐसे-ऐसे जुमले भारत में बने हैं कि तीन पीढ़ियां शब्दों की जुगाली में इंतजार करते-करते मर गईं मगर आम लोगों का जीवन पशु रेवड़ से बाहर नहीं निकला। भारत में मानव गरिमायुक्त जीवन कितने करोड़ लोग जीते हुए हैं? अपना अनुमान है कि शासकों-नेताओं-अफसरों-क्रोनी मेहरबानियों के व्यापारियों के कुल कुलीन वर्ग की संख्या तीन (या ज्यादा से ज्यादा पांच) करोड़ भी नहीं होगी। ये तीन करोड़ लाठीवान, सत्तावान, कलमवान भारत की 135 करोड़ आबादी पर वैसे ही राज करते हुए जैसे अंग्रेज, मुगल अपने कोतवालों के जरिए आजादी से पहले करते थे।

15 अगस्त 1947 से पहले भारत का आम अनपढ़, गरीब भी गांधी, नेहरू, भगत सिंह के चेहरों से विश्वास बना बैठा था कि आजादी मिलेगी तो रामराज्य आएगा। अपनी सरकार होगी। विदेशियों की लूट और भ्रष्टाचार खत्म होगा। थानेदारों, पुलिसवालों, अफसरों की मनमानी खत्म होगी। लगान वसूली घटेगी। गुलामी के समय लोगों का जीवन तब बेसुध और बेबस था। फिर भी वे आजादी के लिए लड़ाई लड़ रहे नेताओं के चेहरों से उम्मीद बनाते हुए थे। हजार साल की गुलामी से मुर्दा हुई कौम जिंदा होती हुई थी। और ठीक पचहत्तर साल बाद सन् 2022 में आज क्या सीन है? हिंदू क्या मान रहा है? मुसलमान क्या जान रहा है? जातियां क्या चाह रही हैं? आबादी याकि जात-पात और लोगों में या तो भूख है या बदले की भावना है या भय है! इतने विशाल पैमाने पर, अखिल भारतीय स्तर पर, भारत के इतिहास में 75 सालों का जीवन आज भी संसद से यह सुनता हुआ है कि देश के लोगों हमारे नेता का शुक्रिया करो, जो अनाज मिल रहा है। भूखे नहीं मर रहे हो। क्या दुनिया में इस तरह जलालत में जीने वाली कोई दूसरी कौम है?

किसी भी तरह सोचें, इस सवाल का जवाब त्रासद होगा कि 75 वर्षों के सफर के बाद भारत के एक सौ चालीस करोड़ लोग आज जैसे स्वभाव और व्यवहार में ढलते हुए हैं वह अमृत है या विष?

इक्कीसवीं सदी और उसका तीसरा दशक.. भारत का नागरिक, समाज और सरकार जिस आचार-विचार से जी रहे हैं वह है क्या?

हिसाब से आजादी के 75 वर्षों में भारतीयों में यह समझने की बुद्धि बननी थी कि दुनिया की अन्य प्राचीन सभ्यताओं की तुलना में हमने अपने सफर में क्या पाया, क्या गंवाया लेकिन दुर्भाग्य जो समझदारी नहीं बनी। आजादी से पहले की तरह ही खामोख्याली, मूढ़ता, भक्ति, गुलामी और भय की तंत्रिकाओं में भारतीय मष्तिष्क जकड़ा हुआ है। न सत्य देख, सुन और समझ सकता हैं और न विचार कर सकता है।

इसलिए अहम सवाल है कि आजादी ने लोगों को और भारत माता को क्या दिया है? 15 अगस्त 1947 के बाद 140 करोड़ लोगों के जीवन जीने की क्वालिटी में कैसी क्या श्रीवृद्धि हुई है? भारत राष्ट्र-राज्य में जीना स्वर्ग, रामराज्य माफिक है या जीने की मुश्किलों का नरक है? पंडित नेहरू का आइडिया ऑफ इंडिया हो या नरेंद्र मोदी का आइडिया ऑफ इंडिया, इन सबसे भारत और खासकर हिंदुओं की सभ्यता-संस्कृति का क्या बना? हिंदुओं की प्राचीन सनातनी संस्कृति की गरिमा और गौरव की श्रीवृद्धि हुई या वह उलटे उज्जड़, जंगली, अंधविश्वासी, नकलची, बुद्धिविहीन मानव स्वभाव से कलंकित हैं? सबसे बड़ी और गंभीर बात जो भारतीयों का जीना बिना इस सुध के है कि बाकी सभ्यताएं कैसे आगे बढ़ी हैं, वे कैसा जीवन जी रहे हैं और हम कैसा?

नौ दिन चले अढ़ाई कोस

निश्चित ही आज जो है वह स्वंतत्रता सेनानियों, संविधान निर्मताओं, नियंताओं के बनवाए सफर से है। पंडित नेहरू और उनके बनवाए संविधान, उनकी धर्मनिरपेक्षता की विरासत से है। फिर नरेंद्र मोदी और उनके हिंदू आइडिया ऑफ इंडिया से निर्मित दशा-दिशा से है। मोटा मोटी दिल्ली की प्रधानमंत्री की कुर्सी पर बैठे सभी 15 नियंताओं (गुलजारीलाल नंदा सहित) से भारत की दिशा का वहीं सत्य प्रमाणित है कि हस्ती है कि मिटती नहीं तो हस्ती बनती भी नहीं! तभी आश्चर्य नहीं जो पचहत्तर सालों के सफर के परिणामों में भारत का मौजूदा जनजीवन अंग्रेजों के वक्त से अधिक अनुपात में पराश्रित, लावारिस, हरामखोर और बेगारी में जीता हुआ है। घर-परिवार नैतिक मूल्यों की बरबादी से रोते हुए हैं। समाज टूटता हुआ है। राष्ट्र जीवन बिखरने की ओर है। भारत पचहत्तरवीं वर्षगांठ पर बिखराव और पानीपत की तीसरी लड़ाई का वह हर सिनेरियो लिए हुए है, जिसे इतिहास कई बार देख चुका है।

कोई कहे यह सब झूठ तब सोचें पिछले 75 वर्षों में भारत माता ने क्या पाया? क्या जातियों की परस्पर लड़ाई-छीना झपटी अब भारत के संविधान से वैधानिक रूप से मान्य नहीं है? जातियों से बिखराव, वैमनस्य, दुर्भावना का सार्वजनिक जहर क्या गली मोहल्लों तक नहीं पहुंचा हुआ है? क्या घर-परिवार में रिश्ते, समाज में जातियों के रिश्ते, धर्म-पंथ-संप्रदायों के परस्पर रिश्ते जहरीले-कटीले नहीं हैं? क्या अमीर-गरीब की असमानता भयावह नहीं है? क्या लोगों का नैतिक-बौद्धिक-धर्मानुगत चरित्र घृणास्पद, बदबूदार नहीं है? क्या भारत विदेश पर और अधिक निर्भर नहीं है? क्या 140 करोड़ लोगों की आर्थिकी दो-चार देशी ईस्ट इंडिया कंपनियों और चीन की बंधक नहीं है? क्या भारत पड़ोसियों के मध्य असुरक्षित नहीं है? क्या देश के भीतर भारतीय 1947 से कई गुना अधिक अपने को परस्पर लड़ाई, असत्य, अपराधों की भयाकुलता में नहीं पाता है?

जीने की भारतीय सच्चाईयां जगजाहिर हैं। पचहत्तर वर्षों में नौ दिन चले अढ़ाई कोस का सफर अनुभवों से प्रमाणित है। भारत की असफलताओं पर तमाम वैश्विक सूचकांकों के ठप्पे हैं। वैश्विक प्रतिस्पर्धाओं, गौरव-मान-सम्मान के ओलंपिक, नोबेल पुरस्कारों आदि से भी सत्य उद्घाटित है। दिमाग भन्ना जाएगा जब सोचेंगे कि 1947 में कितने करोड़ हिंदू धर्मादे में जीते हुए थे और अब उससे कितने गुना अधिक संख्या में लोग खैरात, मुफ्तखोरी, भ्रष्टाचार और लूट से जीते हुए हैं। व्यक्ति या तो भूखा है या लूटता हुआ है। समाज में वे नागरिक बिरले हैं, जो संस्कारित सनातनी है। सबसे गंदा और बेशर्म सत्य है जो सौ-सवा सौ करोड़ लोगों के प्रतिमाह जीवन में कभी पांच किलो राशन बांटने, कभी फ्री वैक्सीन, कभी पांच सौ-हजार-दो हजार रुपए के धर्मादे पर सरकार खुद डंका पीटते हुए अपने तराने बनाती है। मानों भेड़-बकरी और रेवड़ में फ्री के चारे-पानी में मनुष्य का जीना पृथ्वी पर हिंदू स्वर्ग प्रारब्ध हो!

आजाद भारत ने सनातनी हिंदू की सत्यता, शर्म, ग्लानि, संवेदना सबको खा डाला है। भारतीयों को अब न शर्म आती है और न ग्लानि होती है। भारतीयों का दिमाग बेचैन हो कर खदबदाता नहीं है कि ऐसा है तो क्यों? क्या हम हिंदुओं को अपने-आप पर कोड़े मारते हुए नहीं सोचना चाहिए कि कुछ तो बुनियादी गलती है, जिससे हमारा सफर रसातल में गिरते जाने का है!

अंधे द्वारा अंधों को रास्ता

समस्या भारतीय खोपड़ी के तंत्रिका संजाल की है। चौदह सौ सालों की गुलामी ने हिंदू को अंधकार में जीने का ऐसा आदी बना रखा है कि उसे अंधियारे और उजाले का अंतर नहीं बूझता। अंधकार में जीते-जीते बुद्धि अंधी और मूढ़ है। सोचना-विचारना असंभव है। तभी कठोपनिषद् का यह श्लोक हम हिंदुओं के लिए बना लगता है कि जो लोग अविद्या, मूर्खता के भीतर (उसमें रचे-पके) रहते हुए अपने आपको ज्ञानी व महापण्डित मानते हैं वे मूर्ख की तरह ठोकरें खाते हुए भटकते रहते हैं। ऐसे मूढ़ लोग अंधे द्वारा अंधों को रास्ता दिखाने की कहावत को चरितार्थ करते हुए होते हैं। (“अविद्यायाम् अन्तरे वर्तमानाः स्वयं धीराः पण्डितं मन्यमानाः दन्द्रम्यमाणाः मूढाः परियन्ति यथा अन्धेन एव नीयमानाः अन्धाः॥)

यहीं आजाद भारत के सफर का सत्व-तत्व है! पंडित नेहरू का आइडिया ऑफ इंडिया हो या नरेंद्र मोदी का, यदि सबके परिणामों में भटकना और असिद्धि ही सच्चाई है तो अंधे द्वारा अंधों का रास्ता भटकना स्वंय सिद्ध है। कथित बुद्धिजीवी (सेकुलर हो या हिंदुवादी), प्रभु वर्ग, शासक नेता, प्रधानमंत्री एक-दूसरे को कितना ही दोषी करार दें और अपने मुगालतों, अहंकार, अंधविश्वास में चाहे जो बोलें अंत में अंधी गुफा में जीवन जीने की भारतीय सच्चाई से रूबरू में वे अपने आपको फेल प्रमाणित करते हैं। कौम का अनुभव यह फर्क नहीं बनाता कि नेहरू के आइडिया से मंजिल मिली या मोदी के आइडिया से मिली। नेहरू से मोदी तक के पूरे सफर का ही परिणाम यदि भूख, भक्ति और भय है तो इस सत्य को गांठ बांधें कि भारत की समस्या गहरी और नेता व आइडिया निरपेक्ष है!

दरअसल आजाद भारत की गलत नींव बनी। संविधान बनाते हुए संविधान निर्माताओं की बुद्धि ने न दीर्घकालीन भविष्य के विजन में सोचा-विचारा और न इतिहास का ध्यान रखा। इससे भी बड़ी गलती थी जो हिंदू जीवन के सनातनी सत्य, संस्कृति-सभ्यता के ज्ञान के मूल मंत्रों से आजाद भारत की प्राण प्रतिष्ठा नहीं की। भारत को बनाने वाली संविधान सभा का यज्ञ भारत की मौलिकता, भारत की भाषा, भारतीय चिंतन के मंत्रों से नहीं था, बल्कि उन बातों, उस भाषा, उस सांचे से हुआ, जिससे आधुनिक बनने का भ्रम तो बना लेकिन बिना सांस्कृतिक-धार्मिक मूल्यों की ईट व संस्कारविहीन सीमेंट की नींव पर। खामोख्याली, फूहड़ नकल व जुगाड़ ने भारत की वह खोखली बुनियाद बनाई है, जिससे झूठे-भ्रष्ट और उज्जड़ जीवन का असांस्कृतिक जंगल बना। तभी आजाद भारत में नागरिक-राष्ट्र जीवन के वे संस्कार, वे गुण नहीं बने, वह चरित्र नहीं बना, जिनसे सभ्यता-संस्कृति-धर्म-कौम-के सनातनी हिंदू अस्तित्व का वैभव बनता। (जारी)

आलेख – श्री हरिशंकर व्यास ,वरिष्ठ पत्रकार ,नई दिल्ली ।

साभार – राष्ट्रीय हिंदी दैनिक  नया इंडिया”  समाचार पत्र ।

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