भारत से अंग्रेजों को विदा हुए तो 75 वर्ष हो गए लेकिन भारत के भद्रलोक पर आज भी अंग्रेजी सवार है। देश का राज-काज, संसद का कानून, अदालतों के फैसलों और ऊँची नौकरियों में अंग्रेजी का वर्चस्व बना हुआ है। ज्यों ही इंटरनेट, मोबाइल फोन और वेबसाइट का दौर चला, लोगों को लगा कि अब हिंदी और भारतीय भाषाओं की कब्र खुद कर ही रहेगी। ये सब आधुनिक तकनीकें अमेरिका और यूरोप में से उपजी हैं। वहाँ अंग्रेजी का बोलबाला है। ये तकनीकें भारत में भी तूफान की तरह फैल रही थीं। जो लोग अंग्रेजी नहीं जानते थे लेकिन मोबाइल फोन, इंटरनेट या वेबसाइटों का इस्तेमाल करना चाहते थे, उन्हें मजबूरन अंग्रेजी (कामचलाऊ) सीखनी पड़ती थी लेकिन भारत के भद्रलोक को अब पता चला है कि उल्टे बाँस बरेली पहुंच गए हैं। हिंदी के श्रेष्ठ अखबार ‘भास्कर’ ने जो ताजातरीन सर्वेक्षण छापा है, वह भारतीय भाषा प्रेमियों को गदगदायमान कर रहा है। उसके अनुसार देश के 89 प्रतिशत लोग स्वभाषाओं का प्रयोग करते हैं। अंग्रेजी लिखने, बोलने, समझनेवालों की संख्या देश में सिर्फ 12.85 करोड़ याने मुश्किल से 10 प्रतिशत है। सिर्फ ढाई लाख लोगों ने अपनी मातृभाषा अंग्रेजी बताई है। कितने शर्म की बात है कि हमारे देश में इन ढाई लाख लोगों की मातृभाषा भारत के 140 करोड़ लोगों की दादीभाषा बनी हुई है? लेकिन खुशी की बात यह है कि 90 के दशक में इंटरनेट की 80 प्रतिशत सामग्री अंग्रेजी में होती थी, अब वह 50 प्रतिशत के आस-पास लुढ़क गई है याने लोग स्वभाषाओं का इस्तेमाल बड़ी फुर्ती से बढ़ाने लगे हैं।
इंटरनेट ने अनुवाद को इतना सरल बना दिया है कि आप दुनिया की प्रमुख भाषाओं की सामग्री कुछ क्षणों में ही अपनी भाषा में बदल सकते हैं। अनुवाद का उद्योग आजकल अकेले भारत में 4.27 लाख करोड़ रु. का हो गया है। जाहिर है कि भारत में सिर्फ विदेशी भाषाओं से ही देशी भाषाओं में अनुवाद नहीं होता, स्वदेशी भाषाओं में भी एक-दूसरे का अनुवाद होता है। भारत में दर्जनों भाषाएं हैं, इसीलिए यह दुनिया का सबसे बड़ा अनुवाद उद्योग घराना शीघ्र ही बन जाएगा। इससे भारत की एकता सबल होगी और पारस्परिक भाषाई विद्वेष भी घटेगा। भारत की फिल्में भारत में ही नहीं, पड़ौसी देशों में भी बड़े उत्साह से देखी जाती हैं। यदि उनका रूपांतरण भी उनकी भाषाओं में सुलभ होगा तो इन सब देशों की एकता और सांस्कृतिक समीपता में वृद्धि होगी। भारतीय जनता को भी पड़ौसी देशों के अखबारों और फिल्मों का लाभ इस अनुवाद प्रक्रिया के जरिए जमकर मिलता रहेगा। यदि संपूर्ण दक्षिण और मध्य एशिया के देशों में हम भाषाई सेतु खड़ा कर सकें तो कुछ समय में ही हम संपूर्ण आर्यावर्त्त क्षेत्र को यूरोप से अधिक संपन्न और शक्तिशाली बना सकते हैं।
आलेख श्री वेद प्रताप वैदिक जी, वरिष्ठ पत्रकार ,नई दिल्ली।
साभार राष्ट्रीय दैनिक नया इंडिया समाचार पत्र ।
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