राजनीति में कब,क्या हो जाये,कोई नहीं जानता ? कांग्रेस की कोख से जन्मे अनेक राजनीतिक दलों के ऊपर राष्ट्रीय दल की मान्यता समाप्त होने के खतरे मंडरा रहे हैं। इस सबके पीछे चुनाव आयोग के अधिकार हैं और पर्दे के पीछे की राजनीति भी। अदावत की राजनीति अपने प्रतिद्वंदियों को निबटाने का कोई भी हथकंडा अपनाने से गुरेज नहीं कर रही । चुनाव आयोग ने पिछले लोकसभा चुनाव में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई), तृणमूल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) के प्रदर्शन राष्ट्रीय दल की मान्यता के अनुरूप नहीं रहने का हवाला देते हुए इन्हें नोटिस जारी कर पूछा था कि क्यों न इनका राष्ट्रीय दल का दर्जा खत्म कर दिया जाए।वहीं अरविंद केजरीवाल की पार्टी ‘ आप’ राष्ट्रीय दल का दर्जा हासिल करने में कामयाब होती दिखाई दे रही है। राजनीतिक दलों को मान्यता,अधिमान्यता देने का अधिकार शुरू से चुनाव आयोग के पास है । आयोग चुनावों में प्रदर्शन के आधार पर मान्यता देता और छीनता रहा है। इसमें कोई नई बात नहीं है ,लेकिन जिस समय ये कार्रवाई की जा रही है वो रेखांकित करने लायक है। भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीआई), तृणमूल कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) अब चुनाव आयोग से ‘राष्ट्रीय दल’ का उनका दर्जा बरकरार रखने के लिए लगभग गिड़गिड़ाते हुए अनुरोध कर रहे हैं कि उन्हें आगामी चुनावों में प्रदर्शन बेहतर करने का एक मौका दिया जाना चाहिए। ये सभी दल विपक्षी एकता के लिए सक्रिय हैं और यही सक्रियता सत्तारूढ़ दल को पसंद नहीं है । ये तीनों दल सत्तारूढ़ दल की आँखों की किरकिरी बने हुए है। ये किरकिरी निकालने के लिए ही केंचुआ का इस्तेमाल किया जा रहा है।
कांग्रेस की कोख से निकले एनसीपी और तृणमूल कांग्रेस के साथ ही वामपंथी दल भी बीते एक दशक में अपने -अपने दायरे से बाहर नहीं निकल पाए हैं ,जबकि इस दौर में ही आप ने कोशिशकर दो राज्यों में अपनी सरकार बनाई और अनेक राज्यों के विधानसभा चुनावों में अपनी उपस्थिति दर्ज कराई। जो दल कल तक नाग [हाथी] से दिखाई देते थे ,वे ही आज मूषक से दिखाई देने लगे हैं। इन दलों के पास अब एक ही विकल्प है की ये या तो कांग्रेस में दोबारा समा जाएँ या फिर क्षेत्रीय दलों की तरह काम करते हुए राष्ट्रीय राजनीति में अपनी भूमिका का समर्पण कर दें। सीपीआई ने अपने जवाब में कहा कि हालांकि पिछले लोकसभा चुनाव में सीपीआई का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा लेकिन विभिन्न राज्यों में वामदल की सरकार रहने और संविधान को मजबूत बनाने में पार्टी की अहम भूमिका को भी ध्यान में रखा जाना चाहिए। तृणमूल कांग्रेस ने दलील दी है कि उसे 2014 में राष्ट्रीय दल का दर्जा दिया गया था और इसे कम से कम 2024 तक जारी रखा जाना चाहिए।मान्यता जाने का खतरा बहुजन समाज पार्टी के ऊपर भी मंडरा रहा है किन्तु बसपा ने लोकसभा की दस और कुछ विधानसभा सीटें जीतकर अपनी मान्यता को फिलहाल बचा लिया है। लेकिन बकरे की माँ कितने दिन खैर मनाएगी ? एनसीपी के वरिष्ठ नेता माजिद मेमन ने कहा कि उनकी पार्टी 15 साल तक महाराष्ट्र में सत्ता में थी। साथ ही अपवादस्वरूप एनसीपी एकमात्र दल है जिसे उसकी स्थापना के समय से ही राष्ट्रीय दल का दर्जा मिला हुआ है क्योंकि पार्टी बनने के तुरंत बाद हुए चुनाव में उसका प्रदर्शन राष्ट्रीय दल का दर्जा पाने के मानकों के अनुरूप रहा। अब विपक्षी एकता के लिए राजनीतिक दलों का ध्यान अपने दलों की राष्ट्रीय मान्यता बचने में लग गया है। यदि राष्ट्रीय दल का दर्जा जाता है तो इन दलों से उनके चुनाव चुन्ह छीन जाते हैं। आपको बता दूँ कि चुनाव चिह्न (आरक्षण और आवंटन) आदेश 1968 के तहत किसी राजनीतिक दल को राष्ट्रीय दल का दर्जा तब मिलता है जब उसके उम्मीदवार लोकसभा चुनाव में कम से कम छह प्रतिशत मत प्राप्त करें या उसके चार सदस्य चुने जाएं या विधानसभा चुनावों में कम से कम चार या इससे अधिक राज्यों में छह प्रतिशत मत प्राप्त हों। उल्लेखनीय है कि इन मानकों के तहत कांग्रेस, बीजेपी, बीएसपी, सीपीआई, मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, तृणमूल कांग्रेस, एनसीपी और नेशनल पीपुल्स पार्टी ऑफ मेघालय को राष्ट्रीय दल का दर्जा प्राप्त है।
आज की हकीकत ये है कि तमाम क्षेत्रीय दल राष्ट्रीय राजनीतिक दल होने का दावा भले ही करें लेकिन वे राष्ट्रीय दल होने लायक बचे नहीं हैं। ये सौभाग्य केवल कांग्रेस और भाजपा के पास ह। ये दोनों दल अपनी विचारधारा और प्रदर्शन के आधार पर राष्ट्रीय दल हैं और मुझे लगता है कि आगे भी रहेंगे ,क्योंकि अभी कांग्रेस को भाजपा की आरंभिक स्थिति तक पहुँचाने में भाजपा को एक जन्म और लेना पडेगा। कांग्रेस को 02 सीटों तक समेटने का सपना भाजपा शायद ही कभी पूरा कर सके। आपको याद होगा कि भाजपा का राजनीतिक सफर लोकसभा की 02 सीटों के साथ ही शुरू हुआ था।
देश में बहुत से राजनीतक दल ऐसे हैं जो राष्ट्रीय होने के फेर में पड़े ही नहीं ,जैसे बीजद और जेडीयू । बीजद जैसे दल अपने -अपने राज्यों तक ही सीमित हैं और सुखी हैं उनकी महत्वाकांक्षाएं सीमित हैं ,लेकिन जो राष्ट्रीय दल होकर भी हासिये पर जा रहे हैं ,वे परेशान हैं विचारधारा के आधार पर केंद्र आधारित राजनीति करने वाले वामपंथी दल सबसे पहले ढेर हुए। फिर कांग्रेस का विखंडन शुरु हुआ और आज तक जारी है। गुलाम नबी आजाद कांग्रेस से निकलकर अपना दल बनाने वाले आखरी नेता नहीं हैं। कल को सचिन पायलट का नाम भी इस सूची में जुड़ सकता है। कुल मिलाकर ये समय क्षेत्रीय दलों के अस्तित्व को बचने का है। ये तभी मुमकिन है जब तमाम दल कांग्रेस की छत्रछाया में खड़े हों। यद्यपि कांग्रेस का छत्र खुद क्षत-विक्षत है । मुझे नहीं लगता कि केंचुआ मान्यता के मामले में रत्ती भर भी उदारता दिखायेगा। उसके पास आंकड़े हैं ,दलीलें ख़ारिज करने के कारण हैं। ऐसे में अगला लोकसभा चुनाव परिदृश्य कैसा होगा इसकी कल्पना आप कर सकते हैं। क्षेत्रीय दल अपने वजूद को किसी एक राष्ट्रीय दल के साथ जुड़कर ही बचा सकते हैं। और ये दल भाजपा और कांग्रेस के अलावा और कोई हैं नहीं। लोकतंत्र में गठबंधन की राजनीति के लिए ये सबसे नाजुक दौर है। क्योंकि भाजपा अपने तमाम सहयोगियों को लील चुकी है और कांग्रेस अपने सहयोगी दलों का विश्वास अर्जित नहीं कर पा रही है।
व्यक्तिगत विचार आलेख
श्री राकेश अचल जी ,वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनैतिक विश्लेषक मध्यप्रदेश ।
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