खुशनसीब हैं गोस्वामी तुलसीदास जो सोलहवीं शताब्दी में पैदा होकर मर-खप गये।वे यदि इस दौर में पैदा होते तो उन्हें जान क वाले पड़ जाते। तुलसी की रामचरितमानस को लेकर अब राजनीतिक दल ही नहीं बल्कि दलित और सवर्ण भी आपस में उलझ रहे हैं। बिहार में सत्ताधारी गठबंधन में सहयोगी जेडीयू और आरजेडी के बीच विवाद उस वक्त बढ़ गया जब जेडीयू प्रवक्ता नीरज कुमार और उनके समर्थकों ने एक हनुमान मंदिर के बाहर तुलसीदास की रची गई रामचरितमानस की कुछ चौपाइयां पढ़ीं.रामचरितमानस पर राज्य के शिक्षा मंत्री चंद्रशेखर की टिप्पणी का विरोध करने के लिए उन्होंने मंदिर के बाहर चौपाइयां पढ़ीं. आपको पता है कि जेडीयू नेता उपेंद्र कुशवाहा ने रामचरितमानस पर चंद्रशेखर और आरजेडी विधायक सुधाकर सिंह की विवादित टिप्पणी पर पार्टी की चुप्पी पर सवाल उठाए हैं.नालंदा ओपन यूनिवर्सिटी के एक कार्यक्रम में शामिल हुए चंद्रशेखर ने दावा किया था कि “दलितों, पिछड़े वर्गों और महिलाओं को शिक्षा से वंचित रखने की बात कर रामचरितमानस और मनुस्मृति समाज में नफरत फैलाते हैं.” रामचरितमानस को लेकर ये विवाद अब आरजेडी और जदयू का विवाद नहीं रहा।अब इसमें ठाकुर, ब्राह्मण, दलित सब कूद पड़े हैं। कोई तुलसीदास को गरिया रहा है तो कोई उनकी तरफदारी कर रहा है। यहां तक कि अब सरकारी नौकरी करने वाले भी तुलसीदास पर हमलावर हैं। सोलहवीं सदी के लेखक को लेकर अगर इक्कीसवीं सदी में सियासत हो तो लेखक के लिए गर्व का विषय है। मेरी धारणा है कि विसंगतियों से भरी कोई भी किताब सदियों तक जीवित नहीं रह सकती। ऐसी पुस्तक को धर्मग्रंथों जैसी मान्यता तो कभी नहीं मिल सकती जैसी कि रामचरितमानस को हासिल है। तुलसी ने मानस में ‘ ढोल, गंवार,शूद्र,पशु नारी को ताड़ना का अधिकारी लिखकर मनुस्मृति का समर्थन किया या ब्राह्मणवाद का पोषण किया है,ऐसा मंत्री भी मान रहे हैं और जो मंत्री नहीं है वे भी। कोई किसी को रोक तो नहीं सकता। रामचरितमानस को पिछले छह सौ सालों में सभी जातियों ने पढ़ा,पूजा,अनुशरण किया।
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मानस मुगलकाल में लिखी गई।और मोदी काल में भी लोकप्रिय है।अब ये तय करना कठिन है कि इस किताब से किस दल को लाभ हो रहा है और किस दल का नुक़सान। ये बात तो तय है कि इस विवाद, आलोचना से न तुलसीदास का कुछ बिगड़ रहा है और न रामचरितमानस का। मै पिछले अनेक दशकों से रामचरितमानस का नियमित पाठक हूं,मै भी इस ग्रंथ में ‘ढोल, गंवार, शूद्र, पशु, नारी ‘जैसी अनेक चौपाइयों को रेखांकित किए बैठा हूं जो विसंगतियों से भरी हुई है। इन्हें पढ़कर मैं हंस लेता हूं, लेकिन तुलसीदास को खारिज नहीं करता।एक साहित्यकार के रूप में तुलसीदास को देखना ही ग़लत है। तुलसी को ब्राम्हणवाद और मनुवाद का पैरोकार कहना भी ठीक नहीं। यदि ऐसा होता तो तुलसी को ब्राम्हणवाद के ठेकेदार ही प्रताणित न करते। तुलसी भक्त कवि थे। उनके समकालीन दूसरे भक्त कवि चाहे वे शूद्र हों या अशूद्र,मुगल हों या कोई और सबसे घुटती थी। किसी शूद्र विद्वान ने तुलसी पर ऐसे आरोप नहीं लगाए जैसे कि आज लगाए जा रहे हैं। मेरे अनेक विद्वान दलित मित्र भी तुलसीदास के पीछे हाथ धोकर पड़े हैं। मुझे उनके ऊपर दया आती है।मै समझ नहीं पाता कि वे सब एक किताब से इतना क्यों आतंकित हैं? आज तुलसीदास अपने बचाव या स्पष्टीकरण देने के लिए उपलब्ध नहीं हैं। तुलसीदास की किताब जरूर है और बिना प्रयास खूब बिकती है।देश में ऐसे असंख्य लोग हैं जिन्हें ये किताब कंठस्थ है। असंख्य लोग ऐसे हैं जो बात – बात पर इस किताब की चौपाइयों का इस्तेमाल कहावतों के रूप में करते हैं।ऐसा करने वालों में शूद्र, अशूद्र सब शामिल हैं।अब ऐसे लोगों को तुलसी विरोधी रोक नहीं सकते। अगर रोक सकें तो जरूर रोकें। तुलसी को उनके लिखे की सजा जरूर मिलना चाहिए। तुलसीदास ने अकेले रामचरितमानस नहीं लिखा।और भी किताबें लिखी हैं। उनमें तुलसी अलग तरीके से प्रकट होते हैं, किंतु शेष की चर्चा क्यों नहीं होती? चर्चा होना चाहिए। वैसे एक बात तय है कि तुलसी को खारिज करने में चार, पांच शताब्दियां अभी और लग जाएंगी। क्या ही बेहतर हो कि तुलसीकृत रामचरित मानस के मुकाबले कोई दलित,अदलित लेखक कोई नया ग्रंथ लिखे ताकि जो गलती तुलसी ने जाने, अनजाने में की है उसे सुधारा जा सके। मुझे तो रामचरितमानस पढ़ने में मजा आता है। अच्छा है कि अब तुलसीदास पैदा नहीं होते अन्यथा वे रोज – रोज पिटते या उनको देश निकाला दे दिया जाता।
व्यक्तिगत विचार-आलेख-
श्री राकेश अचल जी जी ,वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनैतिक विश्लेषक मध्यप्रदेश ।
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