यकीं मानिये आप जिस युग में जी रहे है उसे क्या विकासषील कह सकते है या भावी विष्वगुरू कह सकते है क्या आज जो कुछ भी हमारे समाज में धर्म के नाम पर हो रहा है जरा इतिहास टटोलिये कि कितनी सदियों पहले कितने दशको पहले हमारा समाज हमारा निरक्षर समाज चमत्कारों की आष में इस कदर पागलपन लिये हुए था हमारे धर्म ग्रंथो में कहां चमत्कारों की एंसी महिमा गायी गयी है जो भगवान के नाम पर ठेकेदारी करते सोषल मीडिया की माया से कुछेक बाबा समाज पर मोहनी अस्त्र चलाने में सफल हुए है। नेतानगरी और मीडिया चैनलों की अपनी मजबूरी है लेकिन आपका विवेक उनके सामने बिना कोई तर्क किये ही यदि नतमस्तक हो जाता है तो आप उन्हे दोश नहीं दे सकते । सनातन जैसे महान तार्किक और वैज्ञानिक आधार वाले धर्म जहां खाना, पीना ,सोना ,जागना यहां तक कि सांस लेना और छोड़ना के पीछे भी ऐंसे वैज्ञानिक आधार है जिसे आज की दुनिया तकनीकि के माध्यम से परखकर मुहर लगाती है। फिर इसमें चमत्कारों का मसाला मुरब्बा कहां से आ गया हमारे कौन से वेद में उपनिशद में कर्म की प्रधानता को चमत्कारों के आगे नतमस्तक बताया गया है सनातन के आधार माने जाने वाले अवतारों ने कब अपनी मानवीय लीला में चमत्कारों की प्रधानता को स्वीकार किया है तो फिर हमारी आस्था को चमत्कारों की चुंबक क्यों खींच रही है हमसे कही ज्यादा विवेकवान तो हमारे पूर्वज हुआ करते थे जो अपने जीवन के दायित्वों को पूरा कर चारो धाम की यात्रा और साधु संतो की सेवा को ही अपना कर्तव्य समझते थे न कि एंसे वीआईपी संतो के पीछे दौड़ लगाते हुए थे ।
भारत में संत परंपरा का अपना एक इतिहास है ऐंसे कई महान संत इस धरा पर आये है और आज भी हिमगिरी की कंदराओं में या निर्जन वन में अपने जीवन को समाज के लिये बिना किसी हो हल्ला के सर्मपित किये हुए है जिनके सानिघ्य में आकर लोगो ने साधना के गूढ रहस्य को समझाा जाना है और अपने जीवन में सात्विक जप -तप से एक अंतराल के बाद आये चमत्कार को अनुभव भी किया है लेकिन आज जो हो रहा है कोई पर्ची पर समस्या लिखकर कभी किसी के बाप, चाचा भतीजी के नाम बतलाकर उसे चमत्कार की श्रेंणी में वायरल कर रहा है तो कहीं समस्त प्रकार के प्रपंचो से परे कहे जाने वाले महाज्ञानी भगवान शिव के नाम पर टोटकों से भीड़ जुटाई जा रही है । यह एक नयी परंपरा उभकरकर आयी है और तकनीकि साधनों ने इसे और अधिक विकृत बना दिया है याद कीजिये टैलिविजन से पहले भारत में संत परंपरा का क्या स्वरूप् था क्या तब देष में सिद्ध महात्मा साधु नहीं होते थे ? क्या तब देष की जनता धर्म के प्रति उदासीन थी ? नहीं कतई नहीं बल्कि तब हमारे समाज में धर्म का सात्विक भाव व स्वरूप् उपस्थित था और हजारों सालों की गुलामी में भी देश में कई प्रकार की संस्किृतियों का शाशन होने के बाद भी भारतीय सनातन ज्ञान और संत परंपरा का पराभव न हो सका, बल्कि कई दूसरी संस्कृति हमारे धर्म और वैज्ञानिक आधार पर पोशित ज्ञान के आने नतमस्तक हुए है टेलीविजन के बाद कथावाचकों और बाबओं का दौर आया लेकिन उन्होने भी कभी चमत्कारों का सहारा नहीं लिया बल्कि गीता, रामकथा, षिवमहापुराण जैसे भारत के ज्ञान की धरोहर को सहजता के साथ सुगम माध्यम से परोसकर जनता को सात्विक जीवन और समाज के प्रति अपने दायित्यों के प्रति जागरूक ही किया लेकिन सोषल मीडिया ने जिस तरह से हमारे सनातनी ज्ञान परंपरा पर स्पेषल इफैक्ट्स का तड़का लगाकर चमत्कारों का महिमामंडन किया है उससे सबसे अधिक हानि हमारे धर्म और उसमें छुपी हुई साधना पर आधारित गूढ ज्ञान को ही हो रहा है गिने चुने बाबाओं के चमत्कारी दरबारों में जुटने वाली भीड़ से जो लाशे निकल रहीं है उनकी जबाबदेही न सरकार की है ।न नेताओं की और न बाबाओं की उनकी जिम्मेवारी आपकी है क्योकि आपने ही अपनी आस्था और अपने ईष्ट के प्रति विष्वास को चमत्कारों की भेट चढा दिया है।
अभिषेक तिवारी
संपादक – भारतभवः
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