अमेरिका ने एक रिपोर्ट अभी-अभी जारी की है। उसके अनुसार दुनिया के 14 देशों में धार्मिक स्वतंत्रता को खतरा है। यह खुशी की बात है कि 14 देशों में भारत का आगे-पीछे कहीं भी नाम नहीं है। हमारे तथाकथित अल्पसंख्यक संप्रदायों के नेता, कांग्रेसी और कम्युनिस्ट लोग इसे अमेरिका की लापरवाही कहेंगे या वे यह मानकर चलेंगे कि अमेरिका ने इन देशों के साथ भारत का नाम इसलिए नहीं जोड़ा है कि वह उसे चीन के विरुद्ध इस्तेमाल करना चाहता है। इस रपट में रूस, चीन और पाकिस्तान के नामों पर विशेष जोर दिया गया है। यदि अमेरिका ने भारत को चीन के खिलाफ डटाए रखने की इच्छा के कारण ही इस सूची में भारत का नाम नहीं जोड़ा है तो मैं पूछता हूं कि उसमें सउदी अरब का नाम क्यों जोड़ा गया है? सउदी अरब से तो अमेरिका के संबंध काफी घनिष्ट हैं। इसी प्रकार अब वह पाकिस्तान से भी उत्तम संबंध बनाने के अवसर नहीं छोड़ रहा है। जहां तक रूस और चीन का सवाल है, इन दोनों देशों से उसके संबंध तनावपूर्ण हैं लेकिन वहां धार्मिक आजादी के दावों पर सच में अमल नहीं हो रहा है।
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‘जिहोवाज़ विटनेस’ संप्रदाय के लोगों पर रूस में कड़ा प्रतिबंध है। उन्हें कठोर सजाएं भी मिलती रहती हैं जबकि रूस अपने आप को कम्युनिस्ट नहीं, धर्म-निरपेक्ष राष्ट्र कहता है। चीन भी धार्मिक स्वतंत्रता का दावा करता है। उसने बौद्ध, इस्लाम, ताओ, केथोलिक और प्रोटेस्टेंट ईसाई धर्मों को मान्यता दे रखी है लेकिन दस लाख उइगर मुसलमानों को यातना-शिविरों में पटक रखा है और तिब्बती बौद्धों को वहां सदा शक की नजर से देखा जाता है। जहां तक ईरान का सवाल है, वहां कट्टरपंथी शिया आयतुल्लाहों का बोलबाला है। ईरान में सुन्नी, बहाई और पारसी लोगों का जीवन दूभर है। पाकिस्तान में हिंदू, बहाई, सिख, यहूदी और ईसाइयों का जीना हराम है। सरकारें तो उनके साथ न्याय करना चाहती हैं लेकिन समाज इसके लिए तैयार नहीं है। कई अफ्रीकी और एशियाई देशों में तो अनेकानेक नरम और सख्त धार्मिक प्रतिबंध जारी हैं। दुनिया के लगभग 40-45 देश ऐसे हैं, जिनमें भारत या अमेरिका की तरह धार्मिक स्वतंत्रता नहीं है। भारत में इस धार्मिक स्वतंत्रता का भयंकर दुरुपयेाग भी होता है। हमारे नेता मजहब और धर्म के नाम पर हमेशा थोक वोट कबाड़ने की फिराक में रहते हैं। इसके अलावा लालच और भय के आधार पर भारत में बड़े पैमाने पर धर्म-परिवर्तन का धंधा भी चला हुआ है। इस छूट का सबसे बड़ा कारण हिंदू धर्म है, जिसमें सैकड़ों परस्पर विरोधी संप्रदाय हैं। एक ही घर में कई संप्रदायों को माननेवाले लोग साथ-साथ रहते हैं और एक-दूसरे को बर्दाश्त भी करते हैं। इसीलिए भारत को उक्त सूची में शामिल नहीं करना सर्वथा उचित दिखाई देता है।
आलेख – श्री वेद प्रताप वैदिक जी, वरिष्ठ पत्रकार ,नई दिल्ली।
साभार राष्ट्रीय दैनिक नया इंडिया समाचार पत्र ।
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