राजनीतिनामा

भारत में गरीबी-अमीरी की खाई

पिछले कई वर्षों से मैं लिख रहा हूँ कि हमारी सरकारें जो दावे करती रही हैं कि देश की गरीबी घटती जा रही है, वे मुझे सही नहीं लगते। यह ठीक है कि देश में अमीरी भी बढ़ रही है और अमीरों की संख्या भी बढ़ रही है लेकिन यदि हम गरीबी की सही पहचान कर सकें तो हमें मालूम पड़ेगा कि देश में हमारे आम लोग गरीब से गरीबतर होते जा रहे हैं। मंहगाई बढ़ती जा रही है, आमदनी घट रही है और लोगों की रोजमर्रा की जिंदगी दूभर हो रही है।

एक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्था, ‘फाइनेंशियल सर्विसेज कंपनी’ के ताजा आंकड़ों के अनुसार भारत के 80 प्रतिशत लोग 163 रु. रोज से भी कम खर्च कर पाते हैं। ज़रा हम सोचें कि क्या डेढ़ सौ रु. रोज में कोई आदमी अपने भोजन, कपड़े, निवास, चिकित्सा और मनोरंजन की व्यवस्था कर सकता है? बच्चों की शिक्षा, यात्रा, ब्याह-शादी आदि के खर्चों को आप न भी जोड़ें तो भी आपको मानना पड़ेगा कि भारत के लगभग 100 करोड़ लोग गरीबी की जिंदगी गुजार रहे हैं। हमारे लोगों के दैनंदिन जीवन की तुलना जरा हम यूरोप और अमेरिका के लोगों से करके देखें। शहरों और गांवों के उच्च और मध्यम वर्ग के लोगों को छोड़ दें और देश के अन्य ग्रामीण, पिछड़े, मेहनतकश लोगों को जरा नजदीक से देखें तो हमें पता चलेगा कि वे मनुष्यों की तरह जी ही नहीं पाते हैं। भारत में शारीरिक और बौद्धिक श्रम के बीच इतनी गहरी खाई है कि मेहनतकश लोग पशुओं सरीखा जीवन जीने के लिए मजबूत होते हैं। उन्हें पता ही नहीं होता है कि उत्तम भोजन, उत्तम वस्त्र और स्वच्छ निवास कैसा होता है?

गरीबी की रेखा को सरकारें ऊँचा-नीचा करती रहती हैं लेकिन करोड़ों लोग कुपोषण के शिकार होते हैं। इसका पता कौन रखता है? देश के लाखों लोगों के पास अपने इलाज के लिए पर्याप्त पैसे ही नहीं होते। वे इलाज के अभाव में दम तोड़ देते हैं।पैसेवालों के लिए ठाठदार निजी अस्पताल हैं, उनके बच्चों के लिए निजी स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय हैं, सरकारी कर्मचारियों और नेताओं के लिए तरह-तरह की सुविधाएं उपलब्ध हैं लेकिन जिन 100 करोड़ लोगों को गरीबी की रेखा के ऊपर बताया जा रहा है, उनकी हालत तो आज भी दयनीय है। देश के 116 करोड़ लोग खुद पर रोज़ 163 रु. से भी कम खर्च कर पाते हैं लेकिन 20 लाख ऐसे भी हैं, जिनका खर्च 4 हजार रु. रोज़ से भी ज्यादा है याने एक साधारण आदमी एक माह में जितना खर्च करता है, उतना खर्च अमीर लोग रोजाना कर डालते हैं।

अमीरी-गरीबी की इस खाई को पाटने के बारे में क्या हमारे नेता कभी कुछ सोचते हैं? हमारे देश के करोड़ों लोग सूखी रोटियों पर गुजारा करते हैं, फटे-टूटे कपड़े-जूते पहनते हैं और झुग्गी-झोंपड़ियों में अपने दिन काटते हैं। भारत में दान-धर्म का चलन बहुत है लेकिन इससे क्या अमीरी-गरीबी खाई पट पाएगी?

आलेख श्री वेद प्रताप वैदिक जी, वरिष्ठ पत्रकार ,नई दिल्ली।

साभार राष्ट्रीय दैनिक नया इंडिया समाचार पत्र  ।

 

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