राजनीतिनामा

प्रशासनिक इकाइयों के पुनर्गठन की जरूरत

मध्य प्रदेश में जो अब तक नहीं हुआ ,वो अब होने जा रहा है। 9 महीने की हो चुकी प्रदेश की डॉ मोहन यादव सरकार ने प्रदेश के संभागों ,जिलों और तहसीलों के पुनर्गठन कराने का फैसला किया है। सरकार ने इसके लिए बाकायदा एक आयोग की घोषणा भी कार दी है और इस आयोग की कमान सेवनिवृर्त भाप्रसे अधिकारी मनोज श्रीवास्तव को सौंप दी है।इस साल 68 के हो चुके मध्यप्रदेश में इस समय 10 संभाग और कोई 55 जिले हैं। मध्य्प्रदेश की आबादी अब लगभग साढ़े आठ करोड़ हो चुकी है ,मध्य्प्रदेश जब बना था तब प्रदेश में जिलों की संख्या 43 थी जो आज बढ़ते-घटते 55 हो गयी है । सबसे ज्यादा जिले 1998 में तत्कालीन कांग्रेस सरकार ने बनाये और तब प्रदेश में जिलों की संख्या बढ़कर 61 हो गयी थी ,लेकिन 2000 में मध्यप्रदेश के पुनर्गठन के बाद जब छत्तीसगढ़ बन गया तब जिलों की सख्या घटकर फिर 45 हो गयी। 2003 में भाजपा के सत्ता में आने के बाद जिलों की संख्या धीर-धीरे बढ़कर 55 हो चुकी है ,लेकिन मध्यप्रदेश की प्रशासनिक व्यवस्था में कोई क्रांतिकारी परिवर्तन नजर नहीं आया।जिलों की संख्या भी बढ़ गयी ,लेकिन जनता की समस्याएं जहाँ थीं वहीं हैं। इसकी वजह प्रशासनिक मानसिकता में कोई परिवर्तन नहीं होना है।प्रशासनिक मशीनरी की मानसिकता में आज भी सामंतवाद भरा हुआ है। पिछले कुछ दशकों में प्रशासन पर राजनीति इतनी ज्यादा हावी हो गयी है की प्रशासन में कोई भी नवाचार ढंग से लागू नहीं हो पाया। एक जमाना था जब नए जिले बनाने के लिए जनता को लम्बे आंदोलन करना पड़े थे। ग्वालियर चंबल समभाग में ही श्योपुर जिला लम्बे आंदोलन के बाद बना था ,किन्तु बाद में जिलों के गठन का पैमाना प्रशासनिक जरूरत न होकर राजनीति हो गयी ,नतीजा शून्य रहा।प्रदेश सरकार ने पिछले 26 साल में जितने नए जिले बनाये उनमें से आज भी बहुत से जिलों की हैसियत तहसीलों से ज्यादा नहीं है । जिलों के गठन की घोषणा करना अलग बात है और जिले के लिए आवश्यक व्यवस्थाएं करना दूसरी बात है। जिलों का गठन बिना किसी तैयारी के कर दिया जाता है फलस्वरूप नए जिलों में न कार्यालयों के लिए इमारतें होतीं हैं और न अमला । कहीं कलेक्टर स्कूल में बैठते हैं तो कहीं रेस्टहाउस में। जिन जिलों को बने दो दशक से ज्यादा हो गए हैं उन जिलों में आज भी आवश्यक अधोसंरचना उपलब्ध नहीं है। हालाँकि सरकार इस दिशा में लगातार कोशिश करती दिखाई देती है।
                                  प्रदेश की 9 माह पुरानी सरकार के पास नया करने के लिए कुछ नहीं था इसलिए उसने प्रशासनिक इकाइयों के पुनर्गठन का राग छेड़ दिया। अब कम से कम एक साल तो जनता ये झुनझुना बजाती रहेगी । प्रशासनिक अधिकारी नए संभागों और जिलों के गठन में अपना कौशल दिखने की कोशिश करेंगे। लेकिन नतीजा क्या निकेगा अभी कहना कठिन है। सवाल ये है कि प्रशासनिक इकाइयों के आकार बदलने से क्या कुछ बदल सकता है। हमारे समाने दो उदाहरण हैं संभाग बनाने के। भोपाल को तोड़कर होशंगाबाद और ग्वालियर को तोड़कर चंबल संभाग बनाया गया था। इन दोनों नए [अब तो पुराने ] संभागों के लिए सरकार ने आजतक पूरी व्यवस्थाएं नहीं की । नए संभागों के लिए अव्वल तो नए कमिश्नर नहीं मिले और मिले तो वे नए संभाग मुख्यलयोंपर गए नही। उन्होंने ज्यादातर वक्त पुराने मुख्यालयों पर बैठकर बिताया। आज भी ये दोनों संभाग काम चलाऊ है। इनका अतिरिक्त प्रभार पुराने संभाग आयुक्तों के पास रहता है।
प्रदेश में जितने भी नए जिले बनाये गए उनकी हालत भी कमोवेश ऐसी ही है। सरकार ने नए जिलों के लिए नए कलेक्टोरेट बना दिए लेकिन पूरा अमला नहीं जुटाया। नए जिलों में जाना प्रशासनिक अधिकारियों की मजबूरी होती है ,कोई भी नए जिले का कमांडर बनकर खुश नहीं दिखाई देता। ये सही है लेकिन आज भी अनेक जिलों के मुख्यालय 100 किलो मित्र की परिधि में है। लेकिन इस दूरी को कम करने से हासिल क्या होगा ? जो काम तहसीलों को करना चाहिए,जो काम सब डिवीजनों को करना चाहिए वो तो हो नहीं रहा। ऐसे में नए जिलों के पुनर्गठन से हासिल क्या होगा ?प्रशासनिक इकाइयों के पुनर्गठन की जरूरत है या नहीं ,इसके बारे में स्थितियना स्पष्ट नहीं है । अचानक सरकार को प्रशासनिक इकाइयों के पुनर्गठन की आवश्यकता क्यों महसूस होने लगी ? क्या किस संगठन ने इसकी मांग की या ये एक दिवास्वप्न है ? छोटे राज्य और छोटे जिलों की परिकल्पना नयी नहीं है । मेरा तो मानना है कि सरकार प्रशासनिक इकाइयों के पुनर्गठन के बजाय प्रदेश के पुनर्गठन की दिशा में आगे बढ़ती तो ज्यादा बेहतर होता। प्रदेश का एक विभाजन होने के बावजूद अभी भी स्थिति ये है की बुंदेलखंड जैसे इलाके विकास की दौड़ में सिर्फ इसीलिए पीछे हैं क्योंकि वहां की प्रशासनिक इकाइयां कुंद और अक्षम हैं। यदि मोहन सरकार पृथक बुंदेलखंड बनाने की दिशा में आगे बढ़ती तोभाजपा कोज्यादा लाभ होता।प्रशासनिक इकाइयों के पुनर्गठन का हम स्वागत करते हैं लेकिन हमारा मानना है कि सरकार को पूर्व में बनाये गए उन तमाम आयोगों को पुनर्जीवित करना चाहिए जो अपनी शैशव अवस्था में ही समाप्त हो गए। चंबल और बुंदेलखंड विकास प्राधिकरणों का गठन प्रशासनिक सुधार के लिए ही किया गया था । लेकिन बाद की सरकारों ने इन प्राधिकरणों कोकोई तवज्जो नहीं दी। नए जिले जनता की अपेक्षाओं को पूरा कैसे कर सकते हैं जब की पूर्व में गठित किये गए प्राधिकरण ये सब नहीं कर पाए ?हकीकत है कि आज की प्रशासनिक इकाइयों में तमाम विसंगतियां है। इन्हें सुधारा जाना चाहिए। लेकिन इसके लिए किसी लम्बे-चौड़े तामझाम की जरूरत नहीं है। इन विसंगतियों को प्रशासनिक आदेशों के जरिये भी दूर किया जा सकता है। क्योंकि सौ फीसदी विसंगति विहीन प्रशासनिक इकाई का गठन करना शायद सम्भव नहीं है। यदि मोहन सरकार ये करिश्मा कर दिखाए तो बहुत ही अच्छा हो। लेकिन इसके लिए एक प्रशासनिक आयोग ही पर्याप्त नहीं है । इस आयोग में सेवानिवृत्त जन सेवक भी शामिल किये जाते तो और बेहतर होता। क्योंकि नौकरशाहों और जन प्रतिनिधियों की सोच -समझ में अंतर होता है।
@ राकेश अचल

⇑ वीडियो समाचारों से जुड़ने के लिए  कृपया हमारे चैनल को सबस्क्राईब करें , धन्यवाद।

Share this...
bharatbhvh

Recent Posts

बहनें लाड़ली हैं तो भाई लाडले क्यों नहीं ?

मध्यप्रदेश में शुरू हुई लाड़ली बहना योजना और उससे मिलती जुलती महतारी योजनाओं ने भाजपा…

17 hours ago

राहुल तुम केवल गुंडे हो नेता नहीं

लोकसभा में विपक्ष के नेता राहुल गांधी को पहचानने में भाजपा भूल कर गई ।…

3 days ago

मानव अधिकार उल्लंघन के ”11 मामलों में” संज्ञान

मध्यप्रदेश मानव अधिकार आयोग के माननीय अध्यक्ष श्री मनोहर ममतानी ने विगत दिवसों के विभिन्न…

5 days ago

कभी टोले से डरती है ,कभी झोले से डरती है

आजकल जैसे संसद में मुद्दों पर काम नहीं हो रहा उसी तरह मुझे भी लिखने…

6 days ago

सीएमसीएलडीपी के छात्रों ने सागर नगर की प्रतिष्ठित संस्था सीताराम रसोई का भ्रमण किया

सागर /मप्र जन अभियान परिषद् सागर विकासखंड द्वारा संचालित मुख्यमंत्री नेतृत्व क्षमता विकास पाठ्यक्रम के…

1 week ago

धमकियों से तो नहीं चल सकती संसद

संसद का शीत सत्र धमकियों से ठिठुरता नजर आ रहा है। इस सात्र के पास…

1 week ago