राजनीतिनामा

चुनाव: आशंकाओं से घिरा देश

इस समय पूरा देश आशंकाओं से घिरा है। आशंका इस बात क है कि देश में अगले साल से चुनाव होंगे या नहीं ? इन आशंकाओं के पीछे आखिर कौन है ? क्या सरकार है, सरकारी पार्टी है या कोई विदेशी हाथ ?
चुनाव को लेकर तमाम आशंकाएं मुझे निराधार लगती हैं, लेकिन बहुत से लोगों के पास इस आशंका को तमाम आधार हैं। सबसे बड़ा आधार ताउम्र सत्ता में बने रहने का एक ख्वाब भी है।इस आशंका को फैलाना कोई कठिन काम भी नहीं है।आज देश में ऐसे तमाम लठधारी संगठन हैं जो रातों रात अफवाहें फैलाने में सिद्धहस्त हैं।एक ओर आशंका जताई जा रही है कि देश में अगला लोकसभा चुनाव हो ही नहीं।हो भी तो शायद ये आखरी चुनाव हो , क्योंकि कुछ दल लगातार पराजय की वजह से चुनाव नहीं चाहते। एक बार कांग्रेस ने भी चुनाव टालने की कोशिश की थी, लेकिन ये कोशिश कांग्रेस को बहुत भारी पड़ी थी।अब यही सब भाजपा करती दिखाई दे रही है, लेकिन शायद न भी करे ।
चुनाव लोकतंत्र के लिए शुभ और अनिवार्य माने जाते हैं। चुनाव बहुमत की लाठी से देश को हांकने की एक व्यवस्था है। कभी कभी ये बहुमत 33 फीसदी का होकर भी बहुमत माना जाता है। इस समय देश में इसी तरह का बहुमत है। ऐसे बहुमत वाली सरकारें आशंकाओं को जानबूझकर कर पैदा करती रहती हैं ।इन आशंकाओं को यथासमय निर्मूल करने की जरूरत है।इस समय देश में एक राष्ट्र,एक भाषा,एक कानून,एक निशान का वातावरण बनाया जा रहा है। कोशिश भी की जा रही है। जम्मू-कश्मीर से उसका प्रथक निशान ही नहीं विधानसभा तक छीन ली गई।अब कोई उसके बारे में चर्चा ही नहीं करता। चर्चा न करने से चर्चा बंद नहीं हो जाती।वो चलती रहती है। जहां चुनाव नहीं होता वहां भी चुनाव पर चर्चा होती है।
बात चुनाव से देश को होने वाले नफा नुकसान से जोड़ कर की जाती है। कभी लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ कराने की बात की जाती है। आजादी के बाद चार चुनाव एक साथ ही हुए भी, लेकिन बाद में ये सिलसिला जारी नहीं रह सका।अनेक तकनीकी कारणों से ये सब नहीं हो सका।लोकसभा और राज्य विधानसभा दोनों के लिए एक साथ चुनाव कराने पर चर्चा दबी जुबान से राष्ट्रपति और प्रधान मंत्री दोनों कर चुके है। सरकार ने गत वर्ष कार्मिक, लोक शिकायत, कानून और न्याय पर संसदीय स्थायी समिति की 79वीं रिपोर्ट संसद के दोनों सदनों में पेश की ही थी समिति ने अपनी रिपोर्ट में महसूस किया कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर बहस शुरू की जानी चाहिए और बार-बार चुनाव से बचने के लिए राष्ट्रीय आम सहमति बनाने का प्रयास किया जाना चाहिए। लेकिन सरकार पहले से ही अनेक मुद्दों पर आम सहमति बनाने में नाकाम रही है।लोकसभा और सभी राज्य विधानसभाओं के पहले आम चुनाव 1951-52 में एक साथ आयोजित किए गए थे। 1957, 1962 और 1967 में हुए बाद के तीन आम चुनावों में यह प्रथा जारी रही। 1968 और 1969 में कुछ विधान सभाओं के विघटन के साथ यह चक्र बाधित हो गया। 1970 में, लोकसभा को समय से पहले ही भंग कर दिया गया और नए चुनाव हुए 1971. इस प्रकार पहली , दूसरी और तीसरी लोकसभा ने पूरे पांच साल का कार्यकाल पूरा किया। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने संविधान के अनुच्छेद 352 (आपातकाल) के तहत 5 वीं लोकसभा का कार्यकाल 1977 तक बढ़ाया गया था।
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                                                  मौजूदा प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को इंदिरा गांधी जैसा दृढनिश्चय वाला नेता माना जाता है।माना जाता है कि मोदी जी हैं तो सब कुछ मुमकिन है। लेकिन इस धारणा से असहमति रखने वाले भी बहुत से लोग हैं जो कहते हैं कि मोदी जी के लिए सब कुछ मुमकिन नहीं है। मोदी जी के लिए कर्नाटक जीतना मुमकिन नहीं हुआ। मुमकिन है कि वे आगे भी कर्नाटक की तरह ही गच्चा खाते जाएं।ये बात हकीकत है कि इस समय पूरा देश चुनावी मोड में रहता है। सरकार इंजन में इंजन लगाने में उलझी रहती है। सबको साथ लेकर सबका विकास करने का मौका मिलता ही कहां है ? ऐसे में देश और खुद को विश्वगुरु बनाने के लिए चुनावों को तिलांजलि देना मंहगा सौदा नहीं है।सरकार कुछ भी कर सकती है । सरकार कुछ भी कर रही है। सरकार आगे भी कुछ भी करे तो हैरानी की बात नहीं है। जहां चुनाव नहीं होता, वहां भी तो सरकार चलती है, विकास होता है!हमें विकास चाहिए, चुनाव तो बाद में भी हो सकते हैं। चीन में चुनाव के बजाय विकास पर जोर दिया जाता है। चुनाव से जनता कोन सा सही नेता चुन लेती है ? चुनाव में गधे -घोड़े और सांपनाथ -नागनाथ में फर्क करना कठिन हो जाता है। हर गलती की सजा जनता को ही भुगतना पड़ती है। जनता के हिस्से में कभी गप्पू तो कभी पप्पू ही आते हैं। सही नेता चुनाव लड़ ही नहीं सकता।
बहरहाल देश को आशंकाओं से बाहर निकालने की जरूरत है। प्रधानमंत्री जी को किसी दिन रात 8 बजे टीवी पर प्रकट होना चाहिए। देश को बताना चाहिए कि देश में चुनाव होंगे या नहीं ?
राकेश अचल जी

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