भारत में टेलीविजन के बेडरूम और फिर मुठ्ठी में पहुंचने से पहले जन्मी पीढ़ी सड़कों पर दिखाए जाने वाले मदारी और जमूरे का खेल देखकर बड़ी हुई पीढ़ी जानती है कि मदारी और जमूरे का रिश्ता और काम एक जैसा नहीं है। दोनों की भूमिका भी अलग है।अनुभव और उम्र में भी काफी फर्क होता है किन्तु दोनों का लक्ष्य एक है। दोनों तमाशा दिखाकर दर्शकों की जेबें खाली कराने का है। संयोग से अब सड़कों पर होने वाले तमाशे संसद और विधानसभाओं में होने लगे हैं। मदारी और जमूरे सियासत में रम गए हैं और जनता को ठगने के लिए रोज नए तमाशे करने लगे हैं। मदारी की आंखों का इशारा मिलते ही जमूरे दर्शकों के सामने तमाशे की जमीन बनाना शुरू कर देते हैं। तमाशा शुरू हो भी चुका है। मप्र के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान इस दौर में जमूरों की भूमिका में भाजपा शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्रियों में अग्रणीय रहना चाहते हैं, इसीलिए उन्होंने प्रदेश विधानसभा चुनावों से ठीक एक साल पहले समान नागरिक संहिता का शिगूफा छोड़ दिया है।समान नागरिक संहिता 75 साल पुराना मुद्दा है।इस पर काम होना चाहिए, लेकिन सियासत नहीं।
देश में 2014 से भाजपा की सरकार है।उसे किसी ने समान नागरिक संहिता लागू करने से रोका नहीं। रोका तो जम्मू कश्मीर से धारा 370 को हटाने से था, लेकिन तब सरकार रुकी नहीं।राम मंदिर निर्माण शुरू कराना था,करा दिया।तीन तलाक़ पर रोक लगाना थी लगा ली। जाहिर है कि सरकार जब तय कर लेती है तो कर दिखाती है,और जब कुछ करना नहीं चाहती तो सिर्फ झुनझुने बजाती है।एक भाषा और एक नागरिक संहिता के मुद्दे पर भाजपा शुरू से छल-छंद करती आई है। ये दोनों मुद्दे भाजपा के संदूक में बंद दो जिन्न हैं, जिन्हें भाजपा चाहे जब आहूत कर लेती है। इस समय भाजपा के पास मुद्दे नहीं हैं और जो देश के मुद्दे हैं वे भाजपा के मुद्दे नहीं हैं। ऐसे में उसे समान नागरिक संहिता जैसे मुद्दों की जरूरत है,जिन पर अमल फिलहाल नामुमकिन है, क्योंकि सरकार खुद ऐसा नहीं चाहती। सरकार समान नागरिक संहिता की बात कर उस मतदाता समूह को भड़काना चाहती है जो भाजपा का वोटबैंक है ही नहीं। ये वो नागरिक हैं जो अल्पसंख्यक कहे जाते हैं। अपना इकबाल बुलंद करने के लिए नौकरशाही को पतवार बनाकर चुनाव की वैतरणी पार करने की जुगत में लगे मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान अपने जीवन का अंतिम विधानसभा चुनाव ध्रुवीकरण के जरिए जीतना चाहते हैं।
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उनकी कोशिश, उनकी अपनी है। इसमें वे कितने कामयाब होंगे,अभी कहा नहीं जा सकता। आपको याद दिला दूं कि विधि और न्याय मंत्रालय द्वारा वर्ष 2016 में समान नागरिक संहिता से संबंधित मुद्दों के समग्र अध्ययन हेतु एक विधि आयोग का गठन किया गया था। विधि आयोग ने कहा था कि समान नागरिक संहिता का मुद्दा मूल अधिकारों के तहत अनुच्छेद 14 और 25 के बीच द्वंद्व से प्रभावित है। आयोग ने भारतीय बहुलवादी संस्कृति के साथ ही महिला अधिकारों की सर्वोच्चता के मुद्दे को इंगित किया। आयोग ने पर्सनल लॉ बोर्ड द्वारा की जा रही कार्यवाहियों को ध्यान में रखते हुए कहा कि महिला अधिकारों को वरीयता देना प्रत्येक धर्म और संस्थान का कर्तव्य होना चाहिये। विधि आयोग के विचारानुसार, समाज में असमानता की स्थिति उत्पन्न करने वाली समस्त रुढ़ियों की समीक्षा की जानी चाहिये। इसलिये सभी निजी कानूनी प्रक्रियाओं को संहिताबद्ध करने की आवश्यकता है जिससे उनसे संबंधित पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी तथ्य सामने आ सकें। वैश्विक स्तर पर प्रचलित मानवाधिकारों की दृष्टिकोण से सर्वमान्य व्यक्तिगत कानूनों को वरीयता मिलनी चाहिये। पिछले 08 साल में इस मुद्दे पर सिर्फ झुनझुने बजा रहीं है।अब सवाल ये है कि असल काम कब होगा? होगा भी या नहीं ? हां इतना तय है कि मप्र में अब पूरी साल राग समान नागरिक संहिता की गूंज ही सुनाई देगी।अब देखना ये है कि समान नागरिक संहिता के नागपाश से भाजपा को लाभ होगा या नहीं ? मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान चार बार मुख्यमंत्री बने।एक बार दिल्ली की कृपा से,दो बार चुनाव जीत कर और एक बार हारकर भी महाराज की अनुकम्पा से।अब पांचवें अवसर पर फिर शिवराज सिंह चौहान को चुनाव का सामना करना है। मुमकिन है कि उन्होंने पार्टी की भावी रणनीति को मद्देनजर रखते हुए ही समान नागरिक संहिता का राग छेड़ा हो। पार्टी चाहती हो कि यदि जनता महाकाल के लिए बनाए लोक से काम न चला तो शायद समान नागरिक संहिता काम आ जाए।
व्यक्तिगत विचार-आलेख-
श्री राकेश अचल जी ,वरिष्ठ पत्रकार , मध्यप्रदेश ।
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