धर्म-ग्रंथ

सर्व कामना पूर्तिकर्ता व समस्त पापनाशक अजा एकादशी

23 अगस्त – अजा एकादशी व्रत

ऐसी मान्यता है कि सतयुग में राजा हरिश्चन्द्र (हरिश्चंद्र) के समस्त पापों का अंत और स्वर्गलोक की प्राप्ति अजा एकादशी का व्रत करने के प्रभाव से ही हुआ। इसलिए विधि- विधानपूर्वक अजा एकादशी का व्रत उस तिथि को रात्रि जागरण करते हुए करने वाले मनुष्य के समस्त पाप नष्ट होकर अंत में वह स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। इस एकादशी की कथा के श्रवणमात्र से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। अजा एकादशी व्रत करने से पूर्वजन्म की बाधाएँ दूर हो जाती हैं। व्यक्ति को सुख-समृद्धि के साथ ही हज़ार गौदान करने के समान फल मिलता है।

विष्णु भक्ति के लिए प्रसिद्ध एकादशी व्रतों के क्रम में भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष की एकादशी को अजा एकादशी नामक व्रत किये जाने की पौराणिक परिपाटी है। अजा एकादशी के दिन भगवान विष्णु के उपेन्द्र स्वरूप की पूजा-अराधना कर रात्रि जागरण किये जाने का विधानहै। अजा एकादशी सभी कामनाओं की पूर्ति और समस्त प्रकार के पापों व कष्टों का नाश कर सुख समृद्धि प्रदान करने वाली मानी गई है। इसलिए सर्वकामना पूर्ति के उद्देश्य से इस दिन भगवान हृषिकेश  की पूजा करने वाले व्यक्ति को मनोवांछित फल व वैकुंठ की प्राप्ति होती है। कुछ पुराणों में अजा एकादशी को जया एकादशी तथा कामिका एकादशी भी कहा गया है।

ऐसी मान्यता है कि सतयुग में राजा हरिश्चन्द्र (हरिश्चंद्र) के समस्त पापों का अंत और स्वर्गलोक की प्राप्ति अजा एकादशी का व्रत करने के प्रभाव से ही हुआ। इसलिए विधि- विधानपूर्वक अजा एकादशी का व्रत उस तिथि को रात्रि जागरण करते हुए करने वाले मनुष्य के समस्त पाप नष्ट होकर अंत में वह स्वर्गलोक को प्राप्त होता है। इस एकादशी की कथा के श्रवणमात्र से अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। अजा एकादशी व्रत करने से पूर्वजन्म की बाधाएँ दूर हो जाती हैं। व्यक्ति को सुख-समृद्धि के साथ ही हज़ार गौदान करने के समान फल मिलता है।

भाद्रपद मास के कृष्ण पक्ष के एकादशी के नाम, पूजा विधि, महात्म्य व कथा के सम्बन्ध में पांडुपुत्र युद्धिष्ठिर के द्वारा पूछे जाने पर श्रीकृष्ण ने बताते हुए कहा कि समस्त पापों को नाश करने वाली भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की एकादशी का नाम अजा है। इस तिथि को भगवान ह्रषीकेश का पूजन व्रत करने वाले व्यक्ति के सारे पाप नष्ट हो जाते हैं, और अंत में वह विष्णुलोक को प्राप्त होता है। श्रीकृष्ण ने युद्धिष्ठिर को इससे सम्बन्धित पौराणिक कथा सुनाते हुए कहा कि अति प्राचीन काल में श्रीराम के पूर्व पुरुष के रूप में इक्ष्वाकु कुल में उत्पन्न समस्त भूमण्डल के स्वामी और सत्यप्रतिज्ञ हरिश्चन्द्र नामक एक विख्यात चक्रवर्ती राजा थे। किसी कर्म का फलभोग प्राप्त होने पर महाराजा हरिश्चंद्र को राज्य से भ्रष्ट हो सताच्युत होना पड़ा, और फिर किसी कर्म के वशीभूत होकर अपना सारा राज्य व धन त्याग दिया। तत्पश्चात पहले अपनी पत्नी और पुत्र को बेच दिया और फिर स्वयं अपने- आपको भी बेच दिया।

पौराणिक ग्रन्थों में पुत्र रोहिताश्व के सर्पदंश से मृत्यु, और तत्पश्चात उसके कफन के लिए हरिश्चन्द्र पत्नी के दर- दर भटकने तथा श्मशान घाट में अपने पति को अपनी साड़ी का एक हिस्सा कर में देने पर अंततः भगवान द्वारा ली जा रही इस परीक्षा से उत्तीर्ण होने पर पुत्र के जीवित होने और राजा हरिश्चन्द्र को पत्नी सहित सर्वस्व पुनः प्राप्त हो जाने की कथा अंकित है। कथा के अनुसार पुण्यात्मा होते हुए भी हरिश्चन्द्र को चाण्डाल की दासता करनी पड़ी, और मुर्दों का कफन लेने का कार्य भी करना पड़ा। फिर भी नृपश्रेष्ठ हरिश्चन्द्र सत्य से विचलित नहीं हुए। मूल कथा के अनुसार अपनी सत्यनिष्ठा और ईमानदारी के लिए अत्यंत प्रसिद्घ महाराजा हरिश्चन्द्र की परीक्षा लेने की योजना देवताओं ने एक बार बनाई।

योजनानुसार एक दिन राजा को स्वप्न में दिखाई दिया कि ऋषि विश्ववामित्र को उन्होंने अपना सम्पूर्ण राजपाट दान कर दिया है। सुबह विश्वामित्र वास्तव में उनके द्वार पर आकर कहने लगे कि तुमने स्वप्न में मुझे अपना राज्य दान कर दिया है, अब वह मुझे दो। राजा ने सत्यनिष्ठ व्रत का पालन करते हुए संपूर्ण राज्य विश्वामित्र को दान कर दिया। दान के लिए दक्षिणा चुकाने हेतु राजा हरिश्चन्द्र को पूर्व जन्म के कर्म फल के कारण पत्नी, पुत्र एवं स्वयं अपने -आपको भी बेचना पड़ा। हरिश्चन्द्र को श्मशान भूमि में लोगों को दाह- संस्कार का कार्य कराने वाले एक डोम ने क्रय कर लिया ।

अब हरिश्चन्द्र स्वयं एक चाण्डाल के दास बन उस चाण्डाल के यहाँ कफन लेने का कार्य करने लगे, किन्तु उन्होंने इस आपत्ति के काम में भी सत्य का साथ कभी नहीं छोड़ा। इस प्रकार चाण्डाल की दासता करते हुए उनके अनेक वर्ष व्यतीत हो जाने पर राजा को बड़ी चिन्ता हुई, और वे अत्यन्त दु:खी हो अपने भवितव्य और कर्म को विचार करते हुए सोचने लगे कि इस स्थिति में क्या करुँ? कहाँ जाऊँ?  किस प्रकार मेरा उद्धार होगा?  इस चिंता में वे शोक के समुद्र में डूब गये। राजा को शोकातुर जानकर महर्षि गौतम उनके पास आये । ऋषि को अपने सामने देख देखकर हरिश्चन्द्र ने उनके चरणों में प्रणाम किया और दोनों हाथ जोड़ गौतम के सामने खड़े होकर अपना सारा दु:खड़ा कह सुनाया । राजा की बात सुनकर महर्षि गौतम ने दुःख त्राण का उपाय बताते हुए कहा कि भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष में आने वाली अत्यन्त कल्याणमयी और पुण्य देने वाली अजा नाम की एकादशी का व्रत करने से ही आपकी पाप का अन्त और आपका भाग्योदय हो सकेगा। आपके भाग्य से आज के सातवें दिन अजा एकादशी है। उस दिन उपवास करके रात्रि काल में जागरण करने से आपका कल्याण अवश्य होगा। ऐसा सलाह दे महर्षि गौतम अन्तर्धान हो गये।

हरिश्चंद्र को शमशान में मृतकों के परिजनों से दाह संस्कार के बदले कर वसूली करने का कार्य भी करना पड़ता था। इस कार्य में कई बार उनके सामने धर्मसंकट की स्थिति भी आ उपस्थित होती थी, लेकिन वे सत्य और कर्तव्य के मार्ग से कभी भी विचलित नहीं होते थे। उधर हरिश्चंद्र की पत्नी को माली के यहां काम करते हुए जीवन काटनी पड़ रही थी। एक दिन बगीचे में खेल रहे उनके पुत्र रोहित को सर्प ने काट लिया और सर्पदंश के प्रभाव से रोहित की वहीं तत्क्षण मृत्यु हो गई। रोती-बिलखती रानी अपने पुत्र रोहिताश्व के शव को छाती से लिपटाए शमशान में पंहुची तो पुत्र के शव को देखकर हरिश्चंद्र का कलेजा भी भर आया। सम्पूर्ण वृतांत सुनकर हरिश्चंद्र ने कहा कि मैं अपने कर्तव्य में बंधा हुआ यहां दाह संस्कार के लिए आने वाले लोगों से कर के वसूली कार्य में लगा हुआ हूँ । बिना कर लिए दाह संस्कार की अनुमति नहीं दे सकता।  यहाँ आने वाले को कर के रुप में कुछ न कुछ देना ही पड़ता है। तुम्हारे पास जो कुछ भी है, उसे कर के रूप में कुछ दो और  पुत्र का दाह संस्कार करो। परन्तु उस बेचारी रानी के पास उसके मृत पुत्र के शव के अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं था। संयोग से वह दिन भाद्रपद मास की कृष्ण पक्ष एकादशी का था, और दोनों ने सुबह से ही कुछ भी अन्न- जल ग्रहण नहीं किया था।

दोनों ही अपनी स्थिति पर विचार कर रहे थे और परमात्मा से प्रार्थना कर रहे थे। जब हरिश्चंद्र ने बिना कर लिए दाह संस्कार नहीं करने दिया तो रानी ने अपनी आधी साड़ी चीर कर हरिश्चंद्र को कर के रुप में दे दिया। कथा के अनुसार हरिश्चन्द्र ने भाद्रपद कृष्ण एकादशी को महर्षि गौतम के बताये अनुसार अजा एकादशी के उत्तम व्रत का अनुष्ठान किया। उधर हरिश्चंद्र की कर्तव्य परायणता को देखकर देवताओं नें उनके पुत्र को जीवित कर दिया, उनके सारे  कष्टों का निवारण कर उनकी पत्नी और राज-पाट भी पुनः उन्हें लौटा दिया। अजा एकादशी व्रत  के प्रभाव से राजा ने निष्कण्टक राज्य प्राप्त किया और अन्त में वे पुरजन तथा परिजनों के साथ स्वर्गलोक को प्राप्त हो गये। युधिष्ठिर  को यह कथा सुनाते हुए श्रीकृष्ण ने कहा कि अजा एकादशी व्रत करने वाले व्यक्ति सब पापों से मुक्त हो स्वर्गलोक में जाते हैं। इस कथा को पढ़ने और सुनने से अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है । इहलोक और परलोक में मदद करने वाली इस एकादशी व्रत के समान संसार में दूसरा कोई व्रत नहीं है। अन्य एकादशियों की भांति ही अजा एकादशी व्रत का आरम्भ एकादशी के एक दिन पूर्व दशमी तिथि से ही शरू हो जाती है, और एकादशी की तिथि को सम्पूर्ण पूजा विधानानुसार किये जाने के बाद द्वादशी तिथि को समाप्त होती है।

आलेख अशोक प्रवृद्ध जी 

साभार- राष्ट्रीय हिंदी दैनिक “नया इंडिया” समाचार पत्र   ।

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