थोक वोट कबाड़ने के लिए हमारे राजनीतिक दल आजकल ऐसे-ऐसे पैंतरे अपना रहे हैं और बेसिर-पैर की दलीलें दे रहे हैं कि कई बार मुझे आश्चर्य होता है कि वे देश को किस दिशा में ले जा रहे हैं। आजकल कुछ प्रदेशों में विधानसभा और स्थानीय निकायों के चुनावों हो रहे हैं। गुजरातियों और मुसलमानों के थोक वोट पटाने के लिए यदि कांग्रेस वीर सावरकर को बदनाम कर रही है तो आफताब-श्रद्धा कांड को भाजपा के कुछ नेता ‘लव जिहाद’ का नाम दे रहे हैं ताकि वे हिंदू वोट पटा सकें। वास्तव में आफताब ने श्रद्धा की जो बर्बरतापूर्ण हत्या की है, उसकी जितना निंदा की जाए, वह कम है। आफताब को तुरंत इतनी कड़ी सजा इस तरीके से दी जानी चाहिए कि हर भावी हत्यारे के रोंगटे खड़े हो जाएं लेकिन उसे ‘लव जिहाद’ कहने की तो कोई तुक नहीं है। आफताब और श्रद्धा के बीच न ‘लव’ था और न ही ‘जिहाद’। दोनों के बीच प्रेम होना तो अपने आप में बड़ी बात है, अगर उनमें थोड़ी भी आत्मीयता होती तो उनके पिछले तीन साल में क्या बार-बार इतने जानलेवा झगड़े होते?
जब सचमुच का प्रेम होता है तो प्रेमी और प्रेमिका एक-दूसरे के लिए अपने प्राण भी न्यौछावर कर देते हैं। और जहां तक जिहाद का सवाल है, जिहादे-अकबर का अर्थ होता है- अपने काम, क्रोध, मद, लोभ और वासनाओं पर विजय पाना। यह, जो दोनों के बीच सहवास संबंध हुआ (लिविंग टुगेदर), वह जिहाद का एकदम उल्टा है। यदि जिहादे-असगर का अर्थ आप को यह लगता है कि धर्म-परिवर्तन के लिए मुसलमान लोग हिंदू लड़कियों को अपने चक्कर में फंसा लेते हैं तो इसमें ज्यादा दोष किसका है क्या वह व्यक्ति मूर्ख नहीं है जो ऐसे चक्कर में फंस जाता है? ऐसे मूर्खों की हानि पर कोई अफसोस क्यों व्यक्त करे? लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि सारी अंतरधार्मिक शादियां ‘लव’ के नाम पर ‘जिहाद’ ही होती हैं। मैं भारत और विदेशों में ऐसे दर्जनों परिवारों को निकट से जानता हूं, जिनमें पति और पत्नी विभिन्न धर्मों के हैं लेकिन उनमें कोई विवाद नहीं होता। या तो वे लोग सभी धर्मों को पाखंड मानते हैं या फिर वे अपने आप को इनसे ऊपर उठा लेते हैं।
जो लोग धर्मनिष्ट होते हैं, वे अपने-अपने धर्म को सहज भाव से मानते हैं लेकिन आजकल पश्चिमी राष्ट्रों की नकल पर हमारे यहां भी ‘लिव इन रिलेशनशिप’ (सहवास) का रिवाज चल पड़ा है। याने शादी किए बिना साथ-साथ रहना। श्रद्धा और आफताब का मामला भी वैसा ही था। ऐसे मामलों में ‘लव-जिहाद’ के नाम पर वासना की भूमिका ज्यादा तगड़ी होती है। ऐसा संबंध व्यभिचार और दुराचार को बढ़ाता है। यह परिवार नामक पवित्र संस्था का विलोम है। ऐसे संबंधों का समर्थन किसी भी धर्म में नहीं है। समानधर्मी लोगों के बीच ऐसे संबंध कहीं ज्यादा होते हैं। इसीलिए सभी धर्मानुयायियों को एक-दूसरे की टांग खींचने के बजाय परिवार नामक संस्था की रक्षा के लिए कटिबद्ध होना चाहिए।
आलेख श्री वेद प्रताप वैदिक जी, वरिष्ठ पत्रकार ,नई दिल्ली।
साभार राष्ट्रीय दैनिक नया इंडिया समाचार पत्र ।
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