भारत में कानून का राज है, इसलिए कानूनी फैसलों पर उंगली उठाना कानून के राज को नकारना है। लेकिन जब देश की सबसे बड़ी अदालत भी लकीर की फकीर बनकर फैसले सुनाएगी तो उंगलियां तो उठेंगी और इसे अदालत की अवमानना कहकर परदा नहीं डाला जा सकता। गत दिवस राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के छावला में वर्ष 2012 में हुए गैंगरेप और मर्डर केस के 3 दोषियों को सुप्रीम कोर्ट ने सोमवार को बरी कर दिया. इन्हें दिल्ली की एक अदालत ने मौत की सजा सुनाई थी. वहीं दिल्ली हाईकोर्ट ने भी इनकी सजा ए मौत को बरकरार रखते हुए उन्हें शिकार के लिए सड़कों पर भटकने वाला हैवान बताया था. सामूहिक नृशंसता और अमानुषिकता के ऐसे न जाने कितने मामले हैं,जो इस तरह के अजीबोगरीब फैसलों की वजह से बलात्कार और हत्या जैसे जघन्य अपराधों के लिए गुंजाइशें छोड़ देते हैं।
गौरतलब है कि पीड़िता का दिल्ली के छावला इलाके से अपहरण करने के बाद गैंगरेप और फिर उसकी हत्या कर दी गई थी. उसका शव हरियाणा के एक गांव के खेत में क्षत-विक्षत हालत में मिला था. उस पर चोट के कई निशान थे. ये चोटें कार के औजार और अन्य वस्तुओं से हमले के कारण आई थीं. कभी -कभी मुझे लगता है कि हमारी सर्वोच्च अदालत ‘फ्री’और’ फेयर’ फैसले सुनाने और अपनी छवि बनाए रखने के लिए निर्मम हो गई है।मेरा और असंख्य भारतीयों का देश के कानून और न्याय व्यवस्था में यकीन है, किंतु जब बारह साल बाद सामूहिक बलात्कार तथा हत्या के आरोपी फांसी पर चढ़ाने के बजाय बाइज्जत बरी कर दिए जाते हैं तो हर किसी का भरोसा डगमगा जाता है। हमारी सरकारी एजेंसियों द्वारा जुटाए जाने वाले आंकड़ों के मुताबिक भारत में 2021 में बलात्कार के कुल 31,677 मामले दर्ज होते हैं। यानी रोजाना औसतन 86 ममले दर्ज किए गए. वहीं, उस साल महिलाओं के खिलाफ अपराध के करीब 49 मामले प्रति घंटे दर्ज किए गए. भारत में अभी आत्माएं अभी मरी नहीं हैं, क्योंकि इसी देश में लोग एक दशक पहले निर्भया मामले को लेकर सड़कों पर उतरे थे।निर्भया गैंगरेप के मामले में चारों दोषियों को तिहाड़ जेल में फांसी दी गई थी। निर्भया मामले के कारण पूरी दुनिया में नकारात्मक प्रभाव पड़ा था और देश की छवि पर शर्मशार हो गई थी। इस घटना की वजह से पूरा देश एकजुट हो पीड़ित लड़की ‘निर्भया’ के समर्थन आकर विरोध-प्रदर्शन किया था। लोग सड़कों पर आ गए थे और अपराधियों को फांसी की मांग करने गए।
लेकिन आज हालात बदल गए हैं, कोई भी सड़क पर नहीं उतरा। सबसे बड़ी अदालत के हैरतअंगेज फैसले के बाद भी देश खामोश है। कुछ आवाजें उठीं हैं किन्तु वे भी नक्कारखाने में तूती की आवाजों से ज्यादा नहीं है। मुझे नहीं लगता कि सुप्रीम कोर्ट के फैसले जनभावनाओं के अनुरूप आने लगेंगे,आना भी नहीं चाहिए, किंतु जब भी इस तरह के फैसले आएं तो उनकी समीक्षा होना चाहिए।खुले दिल से बात होना चाहिए। अदालत तो गवाहों, सबूतों से बंधी हैं, लेकिन सरकार के साथ ऐसा नहीं है। सरकार जनभावनाओं को समझती है। सरकार को ऐसे फैसलों के खिलाफ खड़ा होना चाहिए। आखिर ये तो तय करना ही पड़ेगा कि अपराध हुआ है तो कोई अपराधी होगा और उसे सजा मिलना चाहिए। आखिर अधीनस्थ अदालतें भांग पीकर फैसले नहीं सुनाती ? देश की सबसे बड़ी अदालत को ये भी सोचना और देखना चाहिए कि देश में न्याय व्यवस्था की मौजूदा हालात क्या है ? आपको हैरानी होगी कि एनसीआरबी के आंकड़ों के मुताबिक बलात्कार के मामलों में सजा की दर 2018 में पिछले साल के मुकाबले घटी है. 2017 में सजा की दर 32.2 प्रतिशत थी. उस वर्ष बलात्कार के 18,099 मामलों में मुकदमे की सुनवाई पूरी हुई और इनमें से 5,822 मामलों में दोषियों को सजा हुई थी.आप समझ सकते हैं कि इस हाल में स्थिति में कितना सुधार होगा?
व्यक्तिगत विचार-आलेख-
श्री राकेश अचल जी ,वरिष्ठ पत्रकार , मध्यप्रदेश ।
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