लोकतंत्र-मंत्र

रेवड़ियां बांटने की राजनीति…

हिंदी की एक कहावत है कि ‘अंधा बांटे रेवड़ी, अपने-अपने को देय।’ अपने नेताओं ने अपने आचरण से इस कहावत को यों बदल दिया है कि ‘अंधा बांटे रेवड़ी, सिर्फ खुद को ही देय।’ सिर्फ खुद को फायदा करने के लिए ही आजकल हमारे सत्तारुढ़ दल सरकारी रेवड़ियां बांटते रहते हैं। आजकल देश की लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां थोक वोट बटोरने के लालच में मतदाताओं को तरह-तरह की चीजें उपहार में बांटती रहती हैं। ये ऐसी चीजें हैं, जिनके बिना भी करोड़ों लोग आराम से गुजर-बसर कर सकते हैं।

कई राज्य सरकारों ने अपनी महिला वोटरों को मुफ्त साड़ियां, सोने की चेन, बर्तन, मिक्स-ग्राइंडर और बच्चों को कंप्यूटर, पोषाख, भोजन आदि मुफ्त भेंट किए हैं। कई प्रदेश सरकारों ने मुफ्त साइकिलें भी भेंट में दी हैं। क्या ये सब चीजें जिंदा रहने के लिए बेहद जरुरी हैं? नहीं हैं, फिर भी इन्हें मुफ्त में इसीलिए बांटा जाता है कि सरकारों और नेताओं की छवि बनती है। इसका नतीजा क्या होता है? यह होता है कि हमारी प्रांतीय सरकारें गले-गले तक कर्ज में डूब जाती हैं।

वे डूब जाएं तो डूब जाएं, मुफ्त रेवड़ियां बांटने वाले नेता तो तिर जाते हैं। आजकल हमारी प्रांतीय सरकारें लगभग 15 लाख करोड़ रु. के कर्ज में डूबी हुई हैं। वे रेवड़ियां बांटने में एक-दूसरे से आगे निकलने के लिए उतावली हो रही हैं। कुछ सरकारों ने तो अपने नागरिकों को बिजली और पानी मुफ्त में देने की घोषणा कर रखी है। महिलाओं के लिए बस-यात्रा मुफ्त कर दी गई है। इसका नतीजा यह है कि हमारी सरकारें देश के बुनियादी ढांचे को मजबूत करने में बहुत पिछड़ गई हैं।

देश में गरीबी, बेरोजगारी, रोग और भुखमरी का बोलबाला है। इसी को लेकर आजकल भारत के सर्वोच्च न्यायालय में जमकर बहस चल रही है। एक याचिका में मांग की गई है कि उन राजनीतिक दलों को अवैध घोषित कर दिया जाना चाहिए, जिनकी सरकारें मुफ्त की रेवड़ियां बांटती हैं। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की राय है कि यह तय करना न्यायालय नहीं, संसद का काम है।

सर्वोच्च न्यायालय ने एक कमेटी बना दी है, जिसमें केंद्र सरकार के अलावा कई महत्वपूर्ण संस्थाओं के प्रतिनिधि अपने सुझाव देंगे। चुनाव आयोग ने इसका सदस्य बनने से इंकार कर दिया है, क्योंकि वह एक संवैधानिक संगठन है। सच्चाई तो यह है कि यह बहुत ही पेचीदा मामला है। सरकारें यदि राहत की राजनीति नहीं करेंगी तो उनका कोई महत्व ही नहीं रह जाएगा।

यदि बाढ़ग्रस्त इलाकों में सरकारें खाद्य-सामग्री नहीं बांटेंगी तो उनका रहना और न रहना एक बराबर ही हो जाएगा। इसी तरह महामारी के दौरान 80 करोड़ लोगों को दिए गए मुफ्त अनाज को क्या कोई रिश्वत कह सकता है? वास्तव में भारत-जैसे विकासमान राष्ट्र में शिक्षा और चिकित्सा को सर्वसुलभ बनाने के लिए जनता को जो भी राहत दी जाए, वह सराहनीय मानी जानी चाहिए लेकिन शेष सभी रेवड़ियों को परोसे जाने के पहले न्याय के तराजू पर तोला जाना चाहिए।

 

आलेख , वरिष्ठ पत्रकार – श्री वेद प्रताप वैदिक, नई दिल्ली ।

साभार- राष्ट्रीय हिंदी दैनिक “नया इंडिया” समाचार पत्र   ।

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