28 मई को भारत के नये एवं भव्य संसद भवन के उदघाटन समारोह के साथ ही दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में एक और गौरवषाली अध्याय जुडने वाला है लकिन नये संसद भवन के उद्घाटन समारोह में दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में जो उत्सव का माहौल होना चाहिये वह नदारद क्यों है क्या देश में अब कोई भी निर्णय या योजना तो दूर कोई उत्सव भी बिना राजनैतिक नीयत के पूरा नहीं हो सकता है भारत की नये ससंद भवन के उदघाटन के अवसर पर सत्ता और विपक्ष के बीच जो तनातनी पिछले दो दिन से चल रही है उसे देखकर तो यही लगता है कांग्रेस समेत लगभग 21 बड़े राजनैतिक दलों ने संसद के उदघाटन समारोह का बहिष्कार यह कहते हुए कहा है कि जब लोकतंत्र की आत्मा ही मर चुकी है तो समारोह कैसा तो क्या लोकतंत्र की आत्म किसी भवन में निहित है या फिर 140 करोड़ लोगो को संविधान द्धारा दी गई उस ताकत में जिससे वे किसी को भी राजगददी से नीचे उतार सकते है आजादी के बाद से हम अब तक यही देखते आ रहे है कितनी भी लोकप्रिय या षक्तिषाली नेता क्यो न हो उसने जनता जर्नादन के फैसले को स्वीकर किया है और इमरजेंसी के काले अध्याय को छोड़कर भारत का लोकतंत्र न सिर्फ सबसे बड़ा बल्कि सबसे महान भी रहा है। तो असली लोकतंत्र तो चुनाव में होता है और इस देश में अभी चुनाव होते है सारे राजनैतिक दल उसी संसद भवन में अपनी जगह बनाने के लिये बड़े जोर शोर से चुनाव लड़ते भी है ता फिर लोकतंत्र की आत्मा मर कैसे सकती है । इसलिये इस तर्क से तो ये विशुद्ध राजनैतिक मुददा लगता है। दूसरी बात है राष्टपति द्धारा संसद भवन के उद्घाटन को लेकर जो जातीय मुददा बनाया जा रहा है वह भी हर मौके पर राजनीति और विरोध की राजनीति को दर्शाने वाला है भारत में राष्टपति भले ही प्रथम नागरिक हो लेकिन प्रमुख नेता प्रधानमंत्री ही होता है जो देश भर से चुनकर आये प्रतिनिधियों का नेतृत्व करता है और हानि या लाभ वाले निर्णयों के लिये भी प्रधानमंत्री के कार्यकाल को ही याद किया जाता है न कि राष्टपति के।
अभिषेक तिवारी
संपादक भारतभवः
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