लोकतंत्र-मंत्र

गांधी न सही आजाद को ही हटा दिया

संकीर्णता का कोई इलाज नहीं। संकीर्णता मन की बीमारी है।एक खास किस्म की तरबियत से पैदा होती है संकीर्णता। गांधीवाद के दुश्मन जब भारतीय मुद्रा से महात्मा गांधी की तस्वीर हटाने का साहस नहीं जुटा सके तो स्वतंत्रता सेनानी मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के पीछे पड़ गए।और कुछ नहीं कर पाए तो सबने मिलकर देश के पहले शिक्षा मंत्री मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के नाम से देश में अल्पसंख्यकों को उच्च शिक्षा के लिए दी जाने वाली मौलाना अब्दुल कलाम आजाद फैलोशिप को ही बंद कर दिया। तेजी से हिंदुत्व की ओर धकेले जा रहे इस मुल्क में सरकार के इस अल्पसंख्यक विरोधी कदम का चर्चा और विरोध इसलिए नहीं हुआ क्योंकि इस फैसले से प्रभावित होने वाले छात्रों की तादाद मात्र 750 है। हकीकत में सरकार का फैसला मात्र 750 अल्पसंख्यक छात्रों का सपना नहीं तोड़ता बल्कि एक पीढ़ी की हत्या करता है।
                        सरकार ने 8 दिसंबर को मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के नाम से दी जाने वाली नेशनल फैलोशिप को बंद करने की घोषणा की थी किंतु कहीं कोई प्रतिक्रिया नहीं हुई। होती भी कैसे? अल्पसंख्यक सरकार के तेवरों से पहले ही आतंकित हैं।खास बात ये कि अल्प संख्यकों में केवल मुस्लमान ही नहीं सिख, ईसाई,जैन, पारसी भी शामिल हैं। देश के लाखों के हज़ारों अल्पसंख्यक छात्रों में से कुछ छात्र हैं जो एक लंबे संघर्ष के बाद यूनिवर्सिटी तक पहुंच पाते हैं, इनमें से शोध, फील्डवर्क और पीएचडी करने वाले 750 ही नसीब वाले होते हैं जो इस काम के लिए मौलाना अब्दुल कलाम आजाद के नाम की फैलोशिप। हासिल कर पाते हैं। अब यही मेधावी छात्र परेशान हैं। देश की शिक्षा मंत्री श्रीमती स्मृति इरानी को इनकी परेशानी से क्या लेना देना। स्मृति बहन ने ही ने संसद को बताया कि अल्पसंख्यक समुदायों के बच्चों को हायर एजुकेशन के लिए मिलने वाली मौलाना आज़ाद नेशनल फ़ेलोशिप को सरकार ने 2022-23 से बंद करने का फ़ैसला लिया है. आपको बता दूं कि भारत में छह समुदायों को अल्पसंख्यक का दर्जा दिया गया है. इसमें पारसी, मुस्लिम, ईसाई, सिख, बौद्ध और जैन धर्म शामिल हैं. इस फ़ेलोशिप का मक़सद इन समुदायों से आने वाले छात्रों को पीएचडी के लिए पांच साल तक आर्थिक मदद करना है.
                         सरकार को इस फैलोशिप से ज्यादा चिढ़ मौलाना आज़ाद से है। दरअसल मौलाना अब्दुल कलाम आजाद अफग़ान उलेमाओं के ख़ानदान से ताल्लुक रखते थे ,जो बाबर के समय हेरात से भारत आए थे। उनकी माँ अरबी मूल की थीं और उनके पिता मोहम्मद खैरुद्दीन एक फारसी थे। अब जिस पार्टी के देव दुर्लभ कार्यकर्ताओं ने अयोध्या में बाबरी मस्जिद को नहीं सहा वो पार्टी बाबरी खानदान के मौलाना अब्दुल कलाम आजाद को कैसे बर्दाश्त कर सकती है ?मौलाना के पिता मौहम्मद खैरूद्दीन को कलकत्ता में एक मुस्लिम विद्वान के रूप में ख्याति मिली। जब आज़ाद मात्र 11 साल के थे तब उनकी माता का देहांत हो गया। उनकी आरंभिक शिक्षा इस्लामी तौर तरीकों से हुई। घर पर या मस्ज़िद में उन्हें उनके पिता तथा बाद में अन्य विद्वानों ने पढ़ाया। इस्लामी शिक्षा के अलावा उन्हें दर्शनशास्त्र, इतिहास तथा गणित की शिक्षा भी अन्य गुरुओं से मिली। आज़ाद ने उर्दू, फ़ारसी, हिन्दी, अरबी तथा अंग्रेजी़ भाषाओं में महारथ हासिल की। 16 साल मे उन्हें वो सभी शिक्षा मिल गई थीं जो 25 साल में मिला करती थी। मौलाना के नाम पर शुरू की गई फैलोशिप बंद करने वालों को शायद नहीं मालूम कि मौलाना अबुल कलाम आज़ाद या अबुल कलाम गुलाम मुहियुद्दीन एक प्रसिद्ध भारतीय मुस्लिम विद्वान थे। वे कवि, लेखक, पत्रकार और भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थे। भारत की आजादी के बाद वे एक महत्त्वपूर्ण राजनीतिक पद पर रहे। वे महात्मा गांधी के सिद्धांतो का समर्थन करते थे। खिलाफत आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही। 1923 में वे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के सबसे कम उम्र के अध्यक्ष बने। वे 1940 और 1945 के बीच कांग्रेस के प्रेसीडेंट रहे। भाजपा तो शायद ये भी नहीं जानती कि हाल ही में जिस रायपुर को उसने जीता है आजादी के बाद वे उसी रामपुर से 1952 में सांसद चुने गए और वे भारत के पहले शिक्षा मंत्री बने। भगवान सरकार को सद्बुद्धि दे।

व्यक्तिगत विचार-आलेख-

श्री राकेश अचल जी ,वरिष्ठ पत्रकार , मध्यप्रदेश  । 

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