लोकतंत्र-मंत्र

संकट के बादलों में फंसे सुखबीर बादल

पंजाब में शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष पद से सुखबीर बादल के इस्तीफे की ख़ास चर्चा नहीं हुई क्योंकि इस समय ये क्षेत्रीय दल पंजाब और देश की राजनीति मेंपहले की तरह प्रासंगिक नहीं रहा। देश में भी इस समय सुर्ख़ियों में महाराष्ट्र और झारखण्ड के विधान सभा चुनावों का भी जोर है लेकिन अकालियों की राजनीति में आज भी यही एक ऐसा क्षेत्रीय दल है जिसे पंजाबियों का अलमबरदार कहा जा सकता है। अपनी स्थापना के 104 साल पूरे करने वाले इस दल के सबसे बुरे दिन शायद आजकल ही हैं। खबर आई है कि अकाल तख्त की ओर से ‘तनखैया’ घोषित किए जाने के करीब 2 महीने बाद पंजाब के पूर्व उपमुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष पद से इस्तीफा दे दिया है।पार्टी के वरिष्ठ नेता दलजीत सिंह चीमा ने बताया कि बादल ने पार्टी की कार्यसमिति को अपना इस्तीफा सौंप दिया। बादल के इस्तीफे से नए पार्टी प्रमुख के चुनाव का रास्ता साफ हो गया है। मजे की बात ये है कि पार्टी अध्यक्ष पद से इस्तीफा देने से कुछ दिन पहले बादल ने खुद अकाल तख्त के जत्थेदार से धार्मिक कदाचार के आरोपों में उन्हें सजा सुनाने का आग्रह किया था। सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था अकाल तख्त के जत्थेदार ज्ञानी रघबीर सिंह ने 2007 से 2017 तक अकाली दल और उसकी सरकार की ओर से की गई ‘गलतियों’ के लिए बादल को 30 अगस्त को ‘तनखैया’ घोषित किया था। सुखबीर बादल पर आरोप है कि बादल की कथित गलतियां ‘पंथ की छवि को गहरा नुकसान पहुंचाने और सिख हितों को नुकसान पहुंचाने’ वाली थीं। इसमें 2015 की बेअदबी की घटनाओं के लिए जिम्मेदार लोगों को दंडित करने में विफलता और 2007 के ईशनिंदा मामले में डेरा सच्चा सौदा प्रमुख गुरमीत राम रहीम सिंह को माफ करना शामिल है।
                          पंजाब में शिरोमणि अकाली दल पर 1996 से ही बादल परिवार काबिज है। पहले सुखबीर सिंह बादल के पिता स्वर्गीय प्रकाश सिंह बादल दल के अध्यक्ष हुआ करते थे ,वर्तमान में पार्टी के अध्यक्ष पद .पर सुखबीर सिंह बादल थे। बादल को अपने नेतृत्व के लिए चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, क्योंकि पार्टी का चुनावी प्रभाव तेजी से कम हो रहा है. साल 2022 से विधानसभा चुनावों में यह रिकॉर्ड निचले स्तर पर पहुंच गया, जब पार्टी पंजाब में सिर्फ तीन सीटें ही जीत पाई. इस साल हुए लोकसभा चुनाव में अकाली दल का वोट प्रतिशत घटकर 13.4 प्रतिशत रह गया, जो 2019 में 27.5 प्रतिशत था। साथ ही अकाली दल राज्य की 13 लोकसभा सीटों में से सिर्फ एक पर जीत हासिल कर पाया । आज पंजाब में शिरोमणि अकालीदल कि हैसियत उत्तर प्रदेश में बसपा कि हैसियत जैसी हो चुकी है।आमतौर पर ये माना जाता है कि सुखबीर सिंह बादल, उनके पिता प्रकाश सिंह बादल और यहां तक ​​कि सुखबीर के दादा का भी सिस्टम से लड़ने का इतिहास रहा है। सुखबीर के कार्यकाल में राज्य में सड़क नेटवर्क, अतिरिक्त बिजली आदि के मामले में उल्लेखनीय विकास हुआ। जब 2012 में अकाली-भाजपा गठबंधन ने पंजाब में दोबारा अपना कार्यकाल पूरा करके इतिहास रचा, तो इसका सारा श्रेय सुखबीर को ही दिया गया।सुखबीर सिंह बादल को राजनीती विरासत में मिली है। सुखबीर के पिता प्रकाश सिंह बादल शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष और पंजाब के मुख्यमंत्री भी रहे । वे जनता शासन में केंद्र में मंत्री भी रहे। प्रकाश सिंह बादल ने अपना पहला विधानसभा चुनाव वर्ष 1957 में जीता था। 1969 में वह दोबारा विधानसभा चुनाव में जीत गए। वर्ष 1969-1970 तक उन्होंने सामुदायिक विकास, पंचायती राज, पशुपालन, डेरी आदि से संबंधित मंत्रालयों में कार्यकारी मंत्री के रूप में कार्य किया। प्रकाश सिंह बादल 1970–71, 1977–80, 1997–2002 में पंजाब के मुख्यमंत्री और 1972, 1980 और 2002 में नेता विपक्ष रह चुके थे। मोरारजी देसाई के शासन काल में वह सांसद बने। उन्हें केन्द्रीय मंत्री के तौर पर कृषि और सिंचाई मंत्रालय का उत्तरदायित्व सौंपा गया था। इनका कार्यकाल 1 मार्च 2007 से 2017 तक रहा है
                           अपने पिता के सामने ही साल 1996 में सुखबीर ने अपनी राजनीतिक यात्रा की शुरुआत की थी, जब वे फरीदकोट से सांसद चुने गए थे। 1999 में वे इस सीट से हार गए और 2001 में राज्यसभा सांसद के रूप में संसद गए। उन्होंने अटल बिहारी वाजपेयी सरकार में केंद्रीय मंत्री के रूप में काम किया। 2004 में सुखबीर सिंह बाद ने फरीदकोट से फिर जीत दर्ज की। पांच साल बाद वे जलालाबाद उपचुनाव जीतकर राज्य की राजनीति में वापस आए और अगस्त 2009 से मार्च 2017 तक पंजाब के उपमुख्यमंत्री रहे अकाली दल के अध्यक्ष के रूप में उनके कार्यकाल के दौरान अकाली दल और भाजपा गठबंधन ने 2012 के चुनावों में जीत हासिल की, लेकिन बाद में दोनों दलों का गठबंधन टूट गया। अकाली दल के चुनावी ग्राफ में गिरावट के साथ उन्हें अपने नेतृत्व के लिए लगातार चुनौतियों का सामना करना पड़ा और पार्टी में कई विभाजन हुए। साल 1920 में गठित अकाली दल इस समय अपने सबसे बुरे दौर में है ।
अकाली दल की दुर्दशा के लिए केंद्र में सत्तारूढ़ भाजपा को भी जिम्मेदार माना जाता है। भाजपा ने जिस किसी क्षेत्रीय दल के साथ सत्ता में भागीदारी की उसे बाद में बहुत नुक्सान भी पहुंचाया। राज्य की सत्ता इस समय आम आदमी पार्टी के पास है। अब देखना है कि क्या ये दल एक बार फिर अपने पांवों पर खड़ा हो सकता है या हमेशा के लिए इतिहास बनकर रह जाएगा ?
@ राकेश अचल

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