विशेष - बात

असली गांधीवादी थे बिंदेश्वर पाठक

बिंदेश्वर दुबे को कभी लाल किले की प्राचीर से देश को सम्बोधित करने का मौक़ा नहीं मिला। वे कभी संस्कार सीखने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ की शाखा में भी शायद नहीं गए ,लेकिन जो स्वच्छ भारत को लेकर जो सपना हमारे प्रधानमंत्री माननीय नरेंद्र मोदी जी ने पांच साल पहले देखा था उसे बिंदेश्वर पाठक ने न सिर्फ 53 साल पकहले देख लिया था बल्कि उसे साकार भी कर दिखाया था। महात्मा गाँधी के सच्चे अनुयायी बिंदेश्वर पाठक ने सचमुच की उपाधियाँ हासिल की,पीएचडी की और वोट की राजनीति से दूर रहकर देश सेवा की। पाठक जी स्वतंत्रता की 77 वीं वर्षगांठ के दिन ध्वजारोहण करने के बाद अनंत यात्रा पर निकल गए।मनुवाद और मनुवादी ब्राम्हणों से अनुख [चिढ़न ] रखने वालों के लिए बता दूँ कि ब्राम्हण परिवार में जन्मे बिंदेश्वर पाठक ने मात्र 25 साल की उम्र में ही अपने आपको [1968 में] भंगी मुक्ति कार्यक्रम से जोड़ लिया था। उन्होंने सिर पर मैला ढोने की सामाजिक बुराई और इससे जुड़ी हुई पीड़ा का अनुभव किया। श्री पाठक के दृढ निश्चय ने उन्हें सुलभ इंटरनेशनल जैसी संस्था की स्थापना की प्रेरणा दी और उन्होंने 1970 में भारत के इतिहास में एक अनोखे आंदोलन का शुभारंभ किया।बात शायद सन 1967 की है , पाठक जी ने बिहार गांधी जन्म शताब्दी समारोह समिति में एक प्रचारक के रूप में कार्य किया।उसी समय वे बिहार सरकार के मंत्री शत्रुहन शरण सिंह के संपर्क में आये । सिंह के सुझाव पर ही पाठक ने 1970 में सुलभ शौचालय संस्थान की स्थापना की। बिहार से शुरू हुआ यह अभियान बंगाल तक पहुंच गया। एक दशक में ही वर्ष 1980 आते आते सुलभ भारत ही नहीं विदेशों तक पहुंच गया।इसी साल इस संस्था का नाम ‘ सुलभ इण्टरनेशनल सोशल सर्विस आर्गनाइजेशन ‘ रख दिया गया। आम जनता की जुबान पर सुलभ इंटरनेशनल जिस तेजी से चढ़ा उसे देखकर सब चकित थे। सुलभ को अन्तर्राष्ट्रीय पहचान उस समय मिली जब संयुक्त राष्ट्र संघ की आर्थिक एवं सामाजिक परिषद द्वारा सुलभ इण्टरनेशनल को विशेष सलाहकार का दर्जा प्रदान किया गया।
                                           पाठक जी जुझारू लेकिन विनम्र समाजसेवी थ। उनकी लगन का ही नतीजा था कि सुलभ शौचालयों के द्वारा बिना दुर्गंध वाली बायोगैस के प्रयोग की खोज की गयी । इस सुलभ तकनीक ने स्वच्छता अभियान का रूप होई बदल दिया। आज भारत की रेलों में आप जो शौचालय देखते हैं उसके पीछे पाठक जी का ही ये प्रयोग था जिसे बाद में दी डीओआरडी ने वैज्ञानिक स्वरुप प्रदान किया। पाठक जी की धुन का ही नतीजा था कि उनके सुलभ के पास देखते ही देखते 50 हजार से अधिक स्वयं सेवक जुड़ गए । आज बायोगैस तकनीक का इस्तेमाल विकाशसील राष्ट्रों में बहुतायत से होता है। सुलभ शौचालयों से निकलने वाले अपशिष्ट का खाद के रूप में इस्तेमाल किया जाता है।
कोई माने या न माने किन्तु मेरी मान्यता है कि बिंदेश्वर पाठक ने जो काम किया उसके लिए उन्हें जो प्रतिसाद मिला वो कम है। उन्हें देश और विदेश के तमाम पुरस्कार मिले लेकिन किसी ने उन्हें कभी इतराते नहीं देखा। पाठक जी को सिर पर मैला ढोने वाले समाज को इस अभिशाप से मुक्ति दिलाने की मुहिम ने शुरू में घर और बाहर दोनों जगह उपहास,उपेक्षा और निंदा का सामना करना पड़ा। पाठक जी खुद हंसकर बताते थे कि दूसरों के साथ उन्हें अपने ससुर के उपहास का सामना करना पड़ा था। उनके ससुर को लगता था कि बिंदेश्वर से शादी कर उन्होंने बेटी की जिंदगी बर्बाद कर दी है, क्योंकि वह नहीं बता सकते कि उनका दामाद जीवनयापन के लिए क्या करता है?
                                          आज दुनिया के तमाम देशों में जिस तरह के आधुनिक शौचालय हैं वैसे ही शौचालय वर्ष 1974 में पाठक जी की कल्पना की वजह से बन सके। आज सुलभ शौचालयों में 24 घंटे के लिए स्नान, कपड़े धोने और मूत्रालय की सुविधा सहायक के साथ भुगतान कर इस्तेमाल करने के आधार पर उपलब्ध है। अब सुलभ देश भर के रेलवे स्टेशनों और शहरों में शौचालयों का संचालन और रख-रखाव कर रहा है। भारत के 1,600 शहरों में 9,000 से अधिक सामुदायिक सार्वजनिक शौचालय परिसर मौजूद हैं। इन परिसरों में बिजली और 24 घंटे पानी की आपूर्ति है। परिसरों में पुरुषों और महिलाओं के लिए अलग-अलग स्थान बने हैं। उपयोगकर्ताओं से शौचालय और स्नान सुविधाओं का उपयोग करने के लिए नाममात्र राशि ली जाती है।यानि जो काम अभिशाप था उसे पाठक जी ने वरदान में बदल दिया। हमारी सरकार चुनावी साल में जितने युवकों को नौकरी के नियुक्ति पत्र बांटकर फोटो खिंचवाती है उससे कहीं ज्यादा लोग सुलभ परिसरों में काम कर रहे हैं।बिंदेश्वर पाठक के लिए समाजसेवा का ये प्रकल्प एक उद्योग के रूप में विकसित हो गया । तीन साल पहले 2020 में सुलभ का 490 करोड़ रुपये का ‘टर्नओवर’ था। आपको बता दें कि पाठक जी का अभियान सिर्फ स्वच्छ शौचालयों तक ही सीमित नहीं रहा । कालांतर में सुलभ ने देश में अनेक व्यावसायिक प्रशिक्षण संस्थान भी खोले ,जहां पर सफाईकर्मियों,उनके बच्चों और समाज के अन्य कमजोर वर्गों के व्यक्तियों को मुफ्त कंप्यूटर, टाइपिंग और शॉर्टहैंड, विद्युत व्यापार, काष्ठकला, चमड़ा शिल्प, डीजल और पेट्रोल इंजीनियरिंग, सिलाई, बेंत के फर्नीचर बनाने जैसे विभिन्न व्यवसायों का प्रशिक्षण दिया जाता है।मैला ढोने वालों के बच्चों के लिए दिल्ली में एक अंग्रेजी माध्यम स्कूल स्थापित करने से लेकर वृन्दावन में परित्यक्त विधवाओं को वित्तीय सहायता प्रदान करने या राष्ट्रीय राजधानी में शौचालयों का एक संग्रहालय स्थापित करने तक, पाठक और उनके सुलभ ने हमेशा हाशिए पर रहने वाले लोगों के उत्थान की दिशा में काम किया।मुझे लगता है कि तमाम विसंगतियों को पार कर आलोचनाओं को सहते हुए बिंदेश्वर पाठक जिस तरीके स्वच्छता के अग्रदूत बने उसे देखकर महात्मा गांधी की आत्मा बहुत खुश होती होगी। जिस काम को देश की तमाम सरकारें कामयाब नहीं बना पायीं उस काम को एक व्यक्ति की संकल्पशक्ति ने पूरा कर दिखाया। सरकारी सर्व स्वच्छता अभियान में आज भी भ्र्ष्टाचार की दुर्गन्ध आती है। आंकड़ों के लिहाज से देश भर में घर-घर भले ही शौचालय बनाने का एक बड़ा आंकड़ा आपके सामने हो किन्तु वास्तविकता ये है कि सुलभ शौचालयों के मुकाबले सरकारी पैसे से बने शौचालय सिर्फ मजाक भर हैं ,क्योंकि कहीं दीवारें नहीं हैं तो कहीं दरवाजे । कहीं पॉट नहीं है तो कहीं पानी। बहरहाल पाठक जी एक इतिहास बनाकर गए हैं। जो हमेशा उनकी याद दिलाता रहेगा। एक सच्चे गांधीवादी को विनम्र श्रृद्धांजलि।
राकेश अचल जी ,वरिष्ठ पत्रकार एवं राजनैतिक विश्लेषक

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